Monday, July 18, 2011

शिवरूप सार स्वरूप

परि हरे: संसार: यानी हरि से संसार अलग है,अप हरे: सर्वे दोष: यानी सब दोष हरि से अलग है।आ मुक्ते संसार:,यानी जब तक मोक्ष न हो तभी तक संसार है। इतर: कृष्णात यानी कृष्ण से भिन्न है,ऋते भगवत: यानी भगवान के बिना,अन्य: श्रीरामात,यानी श्रीराम से भी भिन्न है,ऋते भगवत: यानी भगवान के बिना है,आरात बनात,यानी वन से दूर भी है और वन से समीप भी है,पूर्वो ग्रामात,यानी गांव से दूर है। वृक्षं प्रति परि अनु वा विद्योतते विद्युत यानी वृक्ष की ओर बिजली चमकती है,यहाँ वृक्ष के प्रकाशित होने से बिजली की चमक का ज्ञान होता है। अत: वृक्ष को लक्षण मान लिया गया है। किसी के मत में विद्युत का विद्योतन ही लक्षण है,इसे व्यक्त करने वाले के प्रति परि अथवा अनु किसी के भी योग में पूर्ण मान लिया जाता है। भक्तो विष्णुं प्रति परि अनु वा,यह श्री विष्णु का भक्त है,यहां इत्थं भूत का अर्थ है किसी कारक के प्रति इशारा। भक्त रूप इशारे को प्राप्त पुरुष के कथन में प्रयुक्ति प्रति आदि अव्यय कर्म प्रवचनीय होकर विष्णु शब्द से युक्त हो उसमे भी दूसरे कारक के प्रति इशारा है। पार्वतीर्शिव प्रति परि अनु वा,अर्थात पार्वती शिव की है और उन पर उन्ही का अधिकार है.मूल शिव में वीप्सा का प्रयोग नही होने पर श्रावण के महिने में उसका पूर्ण ग्रहण किया जाना माना जाता है,जो ग्रहण सूखे बिल्व पत्रों के द्वारा पार्वती ने ग्रहण किया था,बिल्प पत्रों को तोडकर ग्रहण करने से नही। वृक्षं वृक्षं पति सिंचति,यानी शिव एक एक पेड को सींचता है,जब शक्ति रूपी हरीतिमा पेड पर देखने को मिलती है,वह हरा पत्ता जब सूख कर नीचे गिर जाता है और पार्वती रूपी शक्ति जब उस शव रूपी सूखे पत्ते को ग्रहण करती है तो वही सूखा पत्ता रूपी शव शिव रूप में प्रकट होकर शक्ति रूपी पार्वती को ग्रहण करता है। अनि हरिं सुरा: यानी दैत्य भगवान से दूर है,उप हरि सुरा: यानी देवता भगवान से हीन है,कब जब वे शक्ति को शव को देते है,शिवलिंग जो कि चेतनाहीन होकर पृथ्वी पर स्थापित है उसे हरे बिल्व पत्रों से आच्छादित करने के बाद दूध और जल की धारा से चेतन अवस्था में लाते है और हर हर की आवाज से विभूषित करते है।ह्रदयमनु हरि:,यानी भगवान ह्रदय के भीतर है।

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