Monday, November 1, 2010

बारह अमावस्या और दीपावली

पक्षान्त की दो तिथियां होती है,पहली पूर्णिमा और दूसरी अमावस्या। भारतीय समय गणना के अनुसार संवत का शुरु होना चैत्र मास के नवरात्रा से होता है,नवरात्रा शुरु होने से एक दिन पहली साल की अन्तिम अमावस्या होती है,और कार्तिक अमावस्या सातवीं मानी जाती है। अश्विन मास की नवरात्रा के पहले जो अमावस्या होती है वह पितरों की अमावस्या मानी जाती है। अमावस्या का मुख्य उद्देश्य पितरों के लिये ही माना जाता है,और प्राचीन शास्त्रों के अनुसार तथा प्राचीन समय गणना के अनुसार अश्विन मास की अमावस्या को प्रथम अमावस्या का दर्जा दिया जाता है। चैत्र और बैसाख की अमावस्या को पितरों की पूजा पार्वण विधि के अनुसार की जाती है जिसके अन्दर जितनी श्रद्धा और भाव होता है वह उतने ही श्रद्धा और भावना से पितरों की पूजा करता है। इस दिन कार्य करने वाले लोग अपने अपने संस्थानों की छुट्टी करते है,राजस्थान में आज भी लोग मजदूरी करने नही जाते है और जो मकान आदि के निर्माण का कार्य करते है वे केवल कार्य इसलिये नही करते है कि उनके द्वारा जो भी कार्य अमावस्या को किया जाता है वह या तो पूर्ण नही होता है अथवा पितरों के कोप के कारण वह पूरा ही नही होता है। अमावस्या के दिन लोग खीर पूडी का भोग लगाकर गाय और परिवारिक लोगों को भोजन आदि देते है,कितना ही कोई शराबी और कबाबी हो लेकिन इस दिन वह भी इन सब से दूर रहता है,जितना आदर पितरों को राजस्थान और गुजरात में दिया जाता है उतना शायद भारत के अन्य राज्यों में नही दिया जाता है। पार्वण विधि से धन वैभव और श्रद्धा के अनुसार श्राद्ध ब्राह्मणों को भोजन विशेषत: गोदान आदि किया जाता है। ज्येष्ठ मास की अमावस्या को ब्रह्म-सावित्री व्रत के अनुसार इस दिन सौभाग्य की कामना से स्त्रियां पवित्र होकर वट के वृक्ष को सींचती है तथा एक सौ आठ परिक्रमा करने के समय ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय का जाप करती है,और कच्चे सूत को वट के वृक्ष से पीला करने के बाद लपेटती जाती है। इससे पितरों का बन्धन विष्णु से होना मानते है और जैसे ही पितर विष्णु रूप में अपना प्रभाव प्राप्त करते है वे सन्तान और सौभाग्य को प्रदान करने लगते है।
इस व्रत में महिलायें अपने पति और सन्तान के सुख और लम्बी उम्र की कामना करती है। आषाढ श्रावण और भाद्रपद की अमावस्या को पितर श्राद्ध दान होम और देवपूजा आदि करने से अक्षय फ़ल देते है,भाद्रपद की अमावस्या की दोपहर में तिल के खेत मे पैदा होने वाले कुशों को हुं फ़ट का उच्चारण करके उखाड लिया जाता है,और उन कुशों को साल भर के धार्मिक कर्मकाण्ड या पूजा वाले कार्यों में प्रयोग किया जाता है,इस अमावस्या को कुशोत्पाटनी अमावस्या भी कहा जाता है,अश्विन मास की अमावस्या को श्राद्ध तर्पण आदि पितरों के लिये किया जाता है,यह तर्पण अगर गंगाजी रामेश्वरम या हरिद्वार या बद्रीनाथ में किया जाता है तो बहुत ही उत्तम माना जाता है,यह पितरों को साल भर के लिये मोक्ष देने वाला माना जाता है,कार्तिक मास की अमावस्या को देवमन्दिर घर नदी बगीचा पोखरा हरे पेडों गोशाला तथा बाजार आदि में दीपदान करना चाहिये,यह दीप विभिन्न योनियों में पडे पितरों को रोशनी देने में सहायक कहे गये है,जो पितर किसी कर्म से पीडित होकर विभिन्न नरक योनियों में गये होते है उन्हे रास्ता मिलता है.
देवताओं को प्रसन्न करने वाला तिथि का अन्त में उपवास करना भी उत्तम माना जाता है,अमावस्या को उपवास करने के बाद श्रद्धा और भावना से अपने पूर्वजों के प्रति आदर भाव रखने से व्यक्ति की सभी भौतिक बीमारिया,शारीरिक बीमारियां और दैविक बीमारियां समाप्त हो जाती है। पितरों को तिथि का मूल भाग ही प्रिय होता है,इसलिये अमावस्या के मूल में उनके लिये किया गया कार्य सबसे अधिक पुन्यदायी होता है,इसके अलावा जो व्यक्ति अपने किये गये कार्य के दान श्राद्ध और तर्पण दीपदान आदि के लिये भावना रखता है उसे तिथि के अन्त भाग जो भी कार्य किये जाते है वे दस गुने फ़ल की प्राप्ति करवाते है। लेकिन जो भी धर्म कर्ता पुरुष है वे तिथि के मूल भाग में ही इस प्रकार के कार्य करने चाहिये। यम द्वितीया के दिन ब्रह्माजी ने यमराज को भगवान तथा भक्तों की श्रेष्ठता को बताया था,ऐसा नारद पुराण का कथन है,यम नाम को सुनने से और सोचने से ही प्राणी के अन्दर मौत का भय पैदा हो जाता है,इस डर को दूर करने के लिये भगवान के प्रति जिस नाम का उच्चारण इस दिन करने से कौन सा डर हटता है उसके लिये बताया गया है कि भगवान श्रीकृष्ण का एक बार का लिया हुआ नाम दस अश्वमेध यज्ञ करने के बराबर माना जाता है,इस नाम को लेने से तथा इस नाम को मानसिक धारणा में रखने से यम का भय नही रहता है,"एको कृष्ण द्वितीयोनास्ति" के कथनानुसार केवल भव सागर से पार करने वाला श्रीकृष्ण नाम ही है। "एको हि कृष्णस्य कृतप्रणामो दशास्वमेधावमृथेन तुल्य:।

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