Sunday, October 31, 2010

सूर्य सिद्धान्त की धारणा

सूर्य के नामों में रवि अर्क दिनकर भानु प्रभाकर भास्कर तमारि मार्तण्ड आदि नाम प्रयोग में लाये जाते है। सूर्य को अन्ग्रेजी में सन Sun कहा जाता है। सूर्य जीवन का दाता है,और सूर्य की गति के लिये बडे बडे वैज्ञानिक अपनी धारणा को लेकर जो भी वक्तव्य प्रसारित करते है अपने अपने अनुसार उनके कथन से कहीं न कहीं भ्रम वाली स्थिति पैदा हो जाती है। सूर्य को समझने के लिये शिवलिंग की धारणा को समझना ही काफ़ी है। शिवलिंग के स्थापना के समय इसकी बनावट को सात पर्तों ( सातों तलों,महीतल सुतल वितल पाताल आदि) की धारणा है और उन तलों पर लम्बाई में लिंग की स्थापना को सूर्य रूप में स्थापित किया जाता है,जल लहरी जो उत्तर दिशा की तरफ़ अपना इशारा करती है उसके अनुसार सूर्य का रास्ता आकाश गंगा के माध्यम से उत्तर दिशा की तरफ़ स्थिति ब्रह्माण्ड के प्रति भी अपनी धारणा को प्रसारित करता है।

सूर्य सिद्धान्त को समझने के लिये वेदों के चारों रूपों को भी समझना काफ़ी है। वेदों के अन्दर अधिक गहराई में नही भी जाकर केवल उनके नामों के अनुसार भी अगर ऋग्वेद अथर्ववेद यजुर्वेद और सामवेद को समझा जाये तो भी सूर्य का सिद्धान्त का रूप प्रकट हो जाता है। सूर्य की सातों रश्मियां उनकी ऋचाओं के रूपों को प्रकट करती है और मानसिक अवधारणा को प्रकट रूप में प्रस्तुत करने के बाद भौतिक रूप से सम्पादित भी करती है,काल विशेष की गति के अनुसार जो लोग अपने अपने वक्तव्यों को अपने अपने रूपों के अन्दर प्रस्तुत करते है उसे किसी तर्क में नही लेकर केवल उस गति को और उस स्थान की रश्मियों को ही मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जाता है। यह बात उसी प्रकार से मानी जाती है कि रेगिस्तान में रहने वाले व्यक्ति को कुछ समय के लिये जल से पूर्ण स्थान में अगर रखा जाये तो उसे जुकाम होना और उस जुकाम के अन्दर जलीय क्षेत्र के बारे में अपनी गलत धारणाओं को प्रस्तुत करना जरूरी हो जाता है।

प्रकाश के अन्दर ऊष्मा के होने और ऊष्मा का संचार निम्न तापीय क्षेत्र की तरफ़ चलना ही सूर्य रश्मियों का रास्ता माना जाता है। व्रुहद तापीय क्षेत्र में निम्न तापीय प्रभाव का चलना नही माना जाता है। जडता का प्रभाव निम्न तापीय होने के कारण ही सम्भव है और सचलता का प्रभाव अधिक तापीय होने के कारण ही सम्भव है यह प्रकृति का अटल नियम है,इसी नियम के अनुसार करोडों ग्रहों को अपने साथ मिलाकर चलने वाले सूर्य के लिये भी माना जा सकता है। सूर्य शब्द को भी अगर समझा जाये तो स+ऊर्जा से युक्त पिंड की धारणा बन जाती है। ऋग्वेद में अग्नि के रूप में इसकी शक्ति का प्रयोग लेने की धारणा प्रयोग में ली गयी है। अथर्ववेद में उस अग्नि से मिलने वाली शक्ति के प्रयोग के लिये उसे इकट्ठा करने की धारणा को प्रयोग में लिया गया है। यजुर्वेद में उन शक्तियों के प्रयोग का विवरण और विभिन्न कारकों में शक्ति को प्रदान करने वाली विधाओं को प्रयोग में लाने के लिये बताया जाता है,तथा सामवेद में जनसाधारण से लेकर भौतिक जगत में जो भी द्रश्य है उसे शक्ति को बराबर बराबर देने के लिये तथा उनकी उपयोगिता को बताया गया गया है।

बहुत अधिक समझने के लिये इतना ही काफ़ी है कि सूर्य ही विद्युत का कारक है,सूर्य से ही ऊष्मा का निष्पादन हो रहा है,सूर्य ही भौतिक वस्तु का निर्माता और संहारक है,सूर्य के द्वारा महीतल को सुतल की तरफ़ ले जाने का इशारा भी है। पूर्व दिशा से शक्ति को प्रदान करने वाला दक्षिण दिशा से हिम्मत और पराक्रम को देने वाला पश्चिम दिशा से भौतिकता का निर्माण करने वाला और उत्तर दिशा में उस असीम शक्ति को जो द्रश्य और अद्रश्य है उन्हे एकत्रित करने के लिये माना गया है।

जो सूर्य से दूर रहकर और उनकी रश्मियों को प्रयोग में कम लेता है और सूर्य के द्वारा तापित वस्तु का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रश्मियों से दूर रहकर प्रयोग में लाता है उसके जीवन और मरण के अन्दर बदलाव होता है। ऋषियों ने इस सिद्धान्त को समझा था,तथा गुफ़ाओं कन्दराओं में रहकर हजारों वर्षों की उम्र को प्राप्त किया था,लेकिन साधारण मनुष्य जो दिन भर सूर्य की रोशनी में रहकर अपने कार्यों को करता था और भौतिकता के अन्दर अपनी शक्ति को प्रयोग में लेता था उसकी उम्र उसी प्रकार से परिपक्व हो जाती थी जैसे किसी फ़सल को समयावधि में पकना और उसका पुराना रूप खत्म होना होता है।

उपरोक्त सिद्धान्त को अटल सिद्धान माना जाता है,इसी सिद्धान्त को अपनाकर आज भी हजारों योगी हिमालय और कन्दराओं में अपने शरीर को सुरक्षित रखने के बाद विराजमान है,और भूतत्त्व से अपने शरीर को सूर्य से उत्पन्न शक्ति को प्रयोग में लेकर उपस्थित है। लेकिन उनके पास क्रियात्मक रूप न होकर केवल आत्मीय रूप से ही अनुभव किया जा सकता है,क्रिया करना सूर्य की श्रेणी में आजाता है और जो क्रिया करता है वह अपनी ऊर्जा को बरबाद करता है,जितनी ऊर्जा शरीर से समाप्त की गयी होती है वही शरीर को विनास और नये जीवन को देने के लिये तथा मौत देने के लिये मानी जाती है। क्रिया चाहे भोजन करने के बाद शरीर से पचाने के रूप में हो या भोजन को पचाने के बाद उसके निस्तारण के लिये शौच आदि को करने से हो।

जिस प्रकार से पानी के अन्दर मछली या जलचर जीव पानी में उपस्थित आक्सीजन का प्रयोग करते है,उसी प्रकार से वायु के अन्दर रहने वाले जीव वायु के अन्दर उपस्थित अन्य गैसीय कारकों को प्राप्त करने के बाद अपने जीवन को चला रहे है। लेकिन छिन्नता को दूर करने के लिये महीतल में प्राकृतिक साधनों का प्रयोग करने के बाद अलग अलग जलवायु का प्रयोग अलग अलग प्रकृति के जीवों के लिये जीने के लिये काफ़ी है।

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