Friday, October 29, 2010

माया एवम मुक्ति (स्वामी विवेकानन्द)

कवि कहता है "हम जगत में महिमा का हिरण्य मेघजाल लेकर प्रवेश करते है।" पर सच पूंछो तो हममें से सभी इस प्रकार महिमामण्डित होकर संसार में प्रवेश नही करते; हममें से बहुत से तो अपने पीछे कुहरे की कालिमा लेकर जगत में प्रवेश करते है; इसमे कोई सन्देह नही। हम लोग - हममें से सभी - मानो युद्ध करने के लिये युद्ध क्षेत्र में भेजे गये है। रोते रोते हमें इस संसार में प्रवेश करना पडता है,यथा साध्य प्रयत्न करके अपना मार्ग बना लेना पडता है,जीवन के इस अनन्त सागर में हम अपना मार्ग बनाते है। आगे हम बढते जाते है,अगणित युग हमारे पीछे रहते है और असीम विस्तार हमारे परे। इसी प्रकार हम चलते रहते है और अन्त में मृत्यु आकर हमें इस क्षेत्र से उठा ले जाती है,विजयी अथवा पराजित कुछ भी निश्चित नही है। और यही माया है।

बालक के ह्रदय में आशा की प्रधानता होती है। बालकों के विस्फ़ारित नयनों के समक्ष समस्त जगत मानो एक सुनहले चित्र के समान मालुम पडता है; वह समझता है कि मेरी जो इच्छा होगी वही होगा। किन्तु जैसे वह आगे बढता है वसिए ही प्रत्येक पद पर प्रकृति वज्रद्रढ प्राचीर के रूप में उसकी भविष्य प्रगति रोध करके खडी हो जाती है,उस प्राचीर को भंग करने के लिये वह भले ही बारम्बार वेग के साथ उस पर टक्कर मारता रहे। सारे जीवन भर वह जैसे जैसे अग्रसर होता जाता है,वैसे वैसे उसका आदर्श उससे दूर होगा जाता है- अन्त में मृत्यु आजाती है और शायद इस सबसे छुटकारा मिल जाता है और यही माया है।

एक वैज्ञानिक उठता है,महाज्ञान की पिपासा लिये,उसके लिये ऐसा कुछ भी नही है,जिसका वह त्याग न कर सकता हो,कोई भी संघर्ष उसे निरुत्साहित नही कर सकता। वह लगातार आगे बढता हुआ प्रकृति के एक के बाद एक गुप्त तत्वों का पता लगाता जाता है,प्रकृति के अन्तस्तल में जाकर आभ्यन्तरिक गूढ रहस्यों का उद्घाटन करता जाता है,पर इस सबका उद्देश्य क्या है ? उन्हे कीर्ति क्यों मिले ? मनुष्य जितना कर सकता है,प्रकृति क्या उससे अनन्त गुना अधिक नही करती है ?और प्रकृति तो जड है,अचेतन है। तो फ़िर जड के अनुकरण में कौन सा गौरव है ? प्रकृति कितनी भी विद्युत शक्ति सम्पन्न वज्र को चाहे जितनी दूर फ़ेंक सकती है। यदि कोई मनुष्य उसका शतांश भी कर दे,तोहम उसे आसमान पर चढा देते है,यह सब क्यों,प्रकृति के अनुकरण के लिये मृत्यु के जडत्व के अचेतन के अनुकरण के लिये हम उसकी प्रशंसा क्यों करें ? गुरुत्वाकर्षण शक्ति भारी से भारी पदार्थ को क्षण भर में टुकडे टुकडे कर फ़ेंक सकतीहै,फ़िर भी वह जड है,जड के अनुकरण से क्या लाभ,फ़िर भी हम सारा जीवन उसी के लिये संघर्ष करते रहते है। और यही माया है।

इन्द्रियां मनुष्य की आत्मा को बाहर खींच लाती है,मनुष्य ऐसे स्थानों में सुख और आनन्द की खोज कर रहा है जहा वह उन्हे कभी नही पा सकता। युगों से हम यह शिक्षा पाते आ रहे है कि वह निरर्थक और व्यर्थ है;यहां हमे सुख नही मिल सकता है।परन्तु हम सीख नही सकते ! अपने अनुभव के अतिरिक्त और किसी उपाय से हम सीख नही सकते। प्रयत्न करते है और हमें एक धक्का लगता है,फ़िर भी क्या हम सीखते है,नही,फ़िर भी नही सीखते। पतिंगे जिस प्रकार दीपक की लौ पर टूट पडते है,उसी प्रकार हम इन्द्रियों में सुख पाने की आशा से अपने को बार बार झोंकते रहते है,पुन: पुन: लौट कर हम फ़िर से नये उत्साह के साथ लग जाते है,बस इसी प्रकार चलता रहता है,और अन्त में लूले लंगडे होकर धोखा खाकर हम मर जाते हैं। और यही माया है।

यही बात हमारी बुद्धि के सम्बन्ध में भी है,हम विश्व के रहस्य का हल करने की चेष्टा करते है हम इस जिज्ञासा इस अनुसन्धान की प्रवृत्ति को बन्द नही रख सकते,ऐसा लगता है कि यह सब हमे अवश्य जान लेना चाहिये,और हम यह विश्वास ही नही कर सकते कि ज्ञान कोई प्राप्त की जाने वाली वस्तु नही है। हम कुछ कदम आगे जाते है कि अनादि अनन्त कालरूपी प्राचीर बीच में व्यवधान के रूप में आ खडी होती है। जिसके अन्दर अतिक्रमण करने की शक्ति हमारे अन्दर नही है,और फ़िर यह सब कार्य कारण रूपी दीवार द्वारा सदृढ रूप से सीमाबद्ध है। हम इस दीवार को नही लांघ सकते। तो भी हम संघर्ष करते रहते है,हमे संघर्ष करना ही पडता है। और यही माया है।

प्रत्येक सांस के साथ,ह्रदय की प्रत्येक धडकन के साथ,अपनी प्रत्येक हलचल के साथ हम समझते है कि हम स्वतंत्र है,और उसी क्षण हम देखते है कि हम स्वतंत्र नही है,बद्ध गुलाम,हम प्रकृति के गुलाम है,शरीर मन सर्वविध विचारों एवं समस्त भावों में हम प्रकृति के गुलाम है,और यही माया है।

ऐसी एक भी माता नही है जो अपनी सन्तान को जन्मना एक अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न महापुरुष न समझती हो,वह उस बालक को लेकर पागल सी हो जाती है,उस बालक में ही उसके प्राण पडे रहते है,बालक बडा होता है और शायद घोर शराबी और पशुतुल्य हो जाता है,जननी के प्रति दुष्ट व्यवहार तक करने लगता है,जितना ही उसका दुर्व्यवहार बढता है,उतना ही जननी का प्रेम बढता है,लोग इसे जननी का नि:स्वार्थ प्रेम कहकर प्रशंसा करते है,उनके मन में यह प्रश्न तक नही उठता कि माता जन्मना एक गुलाम है,वह इस प्रकार प्रेम किये बिना नही रह सकती,हजारों बार उसकी इच्छा होती है कि वह इस मोह को त्याग दे,पर वह कर नही पाती है। अत: वह इसे पुष्पराशि द्वारा आच्छादित कर लेती है,और उसी को अद्भुत प्रेम कहती है,और यही माया है।

हम सब का भी बस यही हाल है,नारद ने एक दिन श्री कृष्ण से पूंछा -’ प्रभो माया कैसी है,मैं देखना चाहता हूँ,एक दिन श्री कृष्ण नारद को लेकर एक मरुस्थल की ओर चले,बहुत दूर जाने के बाद श्री कृष्ण नारद से बोले - नारद मुझे प्यास बडी प्यास लगी है,क्या कहीं से थोडा जल ला सकते हो,नारद बोले प्रभो ठहरिये,मैं अभी जल लेकर आता हूँ,यह कह कर नारद चले गये,कुछ दूर पर एक गांव था,नारद वहीं जल की खोज में गये,एक मकान में जाकर उन्होने दरवाजा खटखटाया,द्वार खुला और एक परम सुन्दरी कन्या उनके सम्मुख आकर खडी हुयी,उसे देखते ही नारद सब कुछ भूल गये,भगवान मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे,वे प्यासे होंगे,हो सकता है  कि प्यास से उनके प्राण ही निकल जायें,यह सभी बातें नारद जी के दिमाग से निकल गयीं। वे सब कुछ भूल कर उस कन्या से बातचीत करने लगे। उस दिन वे अपने प्रभू के पास लौटे ही नही,दूसरे दिन वे फ़िर से उस लडकी के घर आकर उपस्थित हो गये,और उससे बातचीत करने लगे,धीरे धीरे बातचीत ने प्रणय का रूप धारण कर लिया,तब नारद उस कन्या के पिता के पास जाकर उस कन्या के साथ विवाह करने की अनुमति मांगने लगे,विवाह हो गया,नव दम्पति उसी गांव में रहने लगे,धीरे धीरे उनकी सन्ताने हुयीं,इस प्रकार बारह साल बीत गये,इस बीच नारद के ससुर भी मर गये,और उनकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी भी हो गये,पुत्र कलत्र भूमि पशु सम्पत्ति गृह आदि को लेकर नारद बडे सुख चैन से दिन बिताने लगे,कम से कम उन्हे तो यही लगा कि वे बडे सुखी है,इतने में उस देश में बाढ आयी,रात के समय नदी दोनो कगारों को तोडकर बहने लगी,और सारा गांव डूब गया,मकान गिरने लगे,मनुष्य और पशु बह बह कर डूबने लगे,नदी की धार में सब कुछ बहने लगा,नारद को भी भागना पडा। एक हाथ में उन्होने स्त्री को पकडा,दूसरे हाथ से दो बच्चों को,और एक बालक को कन्धे पर बिठाकर वे उस भयंकर बाढ से बचने का प्रयत्न करने लगे,कुछ ही दूर जाने के बाद उन्हे लहरों का वेग अत्यन्त तीव्र प्रतीत होने लगा,कन्धे पर बैठे हुये शिशु की नारद किसी प्रकार रक्षा न कर सके,वह गिर कर तरंगों में बह गया,उसकी रक्षा करने के प्रयास में एक और बालक जिसका हाथ वे पकडे थे,गिर कर डूब गया,निराशा और दुख से नारद अन्तर्नाद करने लगे,अपनी पत्नी को वे अपने शरीर की सारी शक्ति लगाकर पकडे हुये थे,अन्त में तरंगों के वेग से पत्नी भी उनके हाथ से छूट गयी,और वे स्वयं तट पर जा गिरे,एवं मिट्टी में लोटपोट होकर बडे ही कातर स्वर से विलाप करने लगे,इसी समय उनकी पीठ पर किसी ने कोमल हाथ रखा,और कहा - बच्चे जल कहाँ है,तुम जल लेने गये थे न,मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में खडा हूँ,तुम्हे गये आधा घंटा बीत चुका है,आधा घंटा,नारद चिल्ला पडे,उनके मन में तो बारह वर्ष बीत चुके थे,और आध घंटे के भीतर ही ये सब द्रश्य उनके मन में होकर निकल गये। और यही माया है।

किसी न किसी रूप में हम माया के भीतर ही है,यह बात समझना बडा कठिन है,विषय भी बडा जटिल है,इसका तात्पर्य क्या है? यही कि यह बात बडी भयानक है, सभी देखों में महापुरुषों ने इस तत्व का प्रचार किया है,सभी देशों के लोगों ने इसकी शिक्षा प्राप्त की है,पर बहुत कम लोगों ने इस पर विश्वास किया है,इसका कारण यही है कि स्वयं बिना भोगे,स्वयं बिना ठोकर खाये,हम इस पर विश्वास नही कर सकते। सच पूंछो तो सभी कुछ वृथा है,सभी झूठ है,सर्व संहारक काल आकर सबको ग्रस लेता है,कुछ भी नही छोडता है,वह पापी को खा जाता है,संत को खा जाता है,राजा प्रजा सुन्दर कुरूप सभी को खा जाता है,किसी को नही छोडता है। सब कुछ उस चरम गति विनाश की ओर ही अग्रसर हो रहा है। हमारा ज्ञान शिल्प विज्ञान सब कुछ उसी की ओर अग्रसर हो रहा है। कोई भी इस ज्वार की गति को नही रोक सकता। हम भले ही उसे भूले रहने की चेष्टा करे,जैसे किसी देश में महामारी फ़ैलने पर लोग शराब नाच गान आदि व्यर्थ की चेष्टाओं में रत रहकर सब कुछ भूलने का प्रयत्न करते हुये पक्षाघात ग्रस्त से हो जाते है,हम लोग भी उसी प्रकार इस मृत्यु की चिन्ता को भूलने का कठोर प्रयत्न कर रहे हैं। सब प्रकार के इन्द्रिय सुखों में रत रहकर उसे भूल जाने की चेष्टा कर रहे है। और यही माया है।

लोगों के सामने दो मार्ग है इनमें से एक को तो सभी जानते है,वह यह है - संसार में दुख कष्ट है,सब सत्य है,पर इस सम्बन्ध में बिल्कुल मत सोचो। यावज्जीवेत्सुखं जीवेत,ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत। दुख है अवश्य,पर उधर नजर मत डालो,जो कुछ थोडा बहुत सुख मिले,उसका भोग कर लो,इस संसार चित्र के अन्धकारमय भाग को मत देखो - केवल प्रकाशमय और आशाप्रद पक्ष की ओर द्रिष्टि रखो। इस मत में कुछ सत्य अवश्य है,पर साथ ही एक खतरा भी है,इसमें सत्य इतना ही कि यह हमें कार्य की प्रेरणा देता है। आशा और इसी प्र्काअर का एक प्रत्यक्ष आदर्श हमें कार्य में प्रवृत और उत्साहित करता है अवश्य,पर इसमें विपत्ति यह है कि अन्त में हमे हताश होकर सब चेष्टायें छोड देनी पडती है। यही हाल होता है उन लोगों का,जो कहते है - संसार को जैसा देखते हो वैसा ही ग्रहण करो,जितना स्वच्छन्द रह सकते हो,रहो;दुख कष्ट आने पर भी सन्तुष्ट रहो;आघात होने पर भी कहो- मैं मुक्त हूँ,स्वाधीन हूँ,दूसरों तथा अपनी आत्मा के सम्मुख दिन रात मिथ्या बोलो,क्योंकि संसार में रहने का,जीवित रहने का यही एक मात्र उपाय है। इसी को सांसारिक ज्ञान कहते है,और इस इक्कीसवीं शताब्दी में इसका जितना प्रभाव है,उतना और कभी नही रहा,क्योंकि लोग इस समय जो चोटें खा रहे है,वैसी उन्होने पहले कभी नहीं खायीं,प्रतिद्वन्द्विता भी इतनी तीव्र पहले कभी नही रही,मनुष्य अपने भाइयों के प्रति आज जितना निष्ठुर है,उतना पहले कभी नही था;और इसीलिये आजकल यह सान्त्वना दी जाती है। आजकल इस उपदेश का ही जोर है,पर अब उससे कोई फ़ल नही होता- कभी होता भी नही,सडे गले मुर्दे को फ़ूलों से ढककर नही रखा जा सकता- यह असम्भव है,ऐसा अधिक दिन नही चलता। एक दिन यह सब फ़ूल सूख जायेंगे,और तब वह शव पहले से अधिक वीभत्स दिखाई देगा। हमारा सारा जीवन भी ऐसा ही है। हम भले ही अपने पुराने सडे घाव को स्वर्ण के वस्त्र से ढककर रखने की चेष्ठा करें,पर एक दिन ऐसा आयेगा,जब वह स्वर्ण वस्त्र खिसक पडेगा और वह घाव अत्यन्त वीभत्स रूप में आंखों के सामने प्रकट हो जायेगा।

तब क्या कोई आशा नही है ? यह सत्य है कि हम सभी माया के दास है,हम सभी माया के अन्दर ही जन्म लेते है और माया में ही जीवित रहते है। तब क्या कोई उपाय नही है ? कोई आशा नही है ? ये सब बातें सकडों युगों से लोगों को मालुम है कि हम सब अतीव दुर्दशा में पडे है,यह जगत वास्तव में एक कारागार है,हमारी पूर्व प्राप्त महिमा की छटा भी एक कारागार है,हमारी बुद्धि और मन भी एक कारागार के समान है। मनुष्य चाहे जो कुछ कहे पर ऐसा कोई भी व्यक्ति नही है जो किसी न किसी समय इस बात को ह्रदय से अनुभव न करता हो। वृद्ध लोग इसको और तीव्रता के साथ अनुभव करते है,क्योंकि उनकी जीवन भर की संचित अभिज्ञता रहती है। प्रकृति की मिथ्या भाषा उन्हे और अधिक नहीं ठगा सकती है। इस बन्धन को तोडने का क्या उपाय है ? क्या कोई उपाय नही है ? हम देखते कि इस भयंकर व्यापार के बावजूद हमारे सामने पीछे चारों ओर यह बन्धन रहने पर भी इस दुख और कष्ट के बीच इस जगत में ही जहां जीवन और मृत्यु समानार्थी है,एक महावाणी समस्त युगों समस्त देशों और समस्त व्यक्तियों के ह्रदय में गूंज रही है -

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्या। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥

मेरी यह दैवी त्रिगुणमयी माया बडी मुश्किल से पार की जाती है। जो मेरी शरण में आते है,वे इस माया से अतीत हो जाते है। ॥गीता॥7-14॥

हे थके मांदे भार से लदे मनुष्यो,आओ मै तुम्हे आश्रय दूंगा,यह वाणी हम सब को बराबर अग्रसर कर रही है। मनुष्य ने इस वाणी को सुना है,औ अनन्त युगों से सुनता आ रहा है,जब मनुष्य को लगता है कि उसका सब कुछ चला जा रहा है,जब उसकी आशा टूटने लगती है,जब अपने बल में उसका विश्वास हटने लगता है,जब सब कुछ मानो उसकी अंगुलियों में से खिसकर भागने लगता है,और जीवन केवल एक भग्नावशेष में परिणत हो जाता है,तब वह इस वाणी को सुन पाता है और यही धर्म है।

अतएव एक ओर तो यह अभय वाणी है,कि यह समस्त कुछ नही,केवल माया है,और साथ ही यह आशाप्रद वाक्त्य कि माया के बाहर जाने का मार्ग भी है। और दूसरी ओर हमारे सांसारिक लोग कहते है,"धर्म दर्शन ये सब व्यर्थ की वस्तुयें लेकर दिमाग को खराब मत करो। दुनिया में रहो,माना यह दुनिया बडी खराब है,पर जितना हो सके इसका आनन्द ले लो। सीधे सादे शब्दों में इसका अर्थ यही है कि दिन रात पाखण्ड पूर्ण जीवन व्यतीत करो -अपने घाव को जब तक हो सके,ढ्के रखो। एक के बाद दूसरी जोड गांठ करते जाओ,यहाँ तक कि सब कुछ नष्ट हो जाय और तुम केवल जोड गांठ का एक समूह मात्र रह जाओ। इसी को कहते है सांसारिक जीवन। जो इस जोडगांठ से संतुष्ट है,वे कभी भी धर्मलाभ नही कर सकते। जब जीवन की वर्तमान अवस्था में भयानक अशान्ति पैदा हो जाती है,जब अपने जीवन के प्रति भी ममता नही रह जाती है,जब इस जोडगांठ पर अपार घृणा पैदा हो जाती है,जब मिथ्या और पाखण्ड के प्रति प्रबल नफ़रत पैदा हो जाती है,तभी धर्म प्रारम्भ हो जाता है। बुद्ध देव ने बोधि वृक्ष के नीचे बैठ कर द्रढ स्वर से जो बात कही थी,उसे जो अपने रोम रोम से बोल सकता है,वही वास्तविक धार्मिक होने योग्य है। संसारी होने की इच्छा उनके भी ह्रदय में एक बार उत्पन्न हुयी थी। इधर वे स्पष्ट रूप से ख रहे थे कि उनकी यह अवस्था यह सांसारिक जीवन एकदम व्यर्थ है,पर इसके बाहर जाने का उन्हे कोई मार्ग नही मिल रहा था,मार एक बार उनके निकत आया और कहने लगा - छोडो भी सत्य की खोज,चलो संसार में लौट चलो,और पहले जैसा पाखण्ड पूर्ण जीवन बिताओ,सब वस्तुओं को उनके मिथ्या नाम से पुकारो,अपने निकट और सबके निकट दिन रात मिथ्या बोलते रहो। यह मार उनके पास पुन: आया,पर उस महावीर ने अपने अतुल पराक्रम से उसे उसी क्षण परास्त कर दिया। उन्होने कहा,"अज्ञानपूर्वक केवल खापीकर जीने की अपेक्षा मरना ही अच्छा है,पराजित होकर जीने की अपेक्षा युद्ध क्षेत्र में मरना श्रेयस्कर है",यही धर्म की भित्ति है। जब मनुष्य इस भित्ति पर खडा होगा है,तब समझना चाहिये कि वह सत्य की प्राप्ति के पथ पर ईश्वर की प्राप्ति के पथ पर चल रहा है। धार्मिक होने के लिये भी पहले यह द्रढ प्रतिज्ञा आवश्यक है,मैं अपना रास्ता स्वयं ढूंड लूंगा,सत्य को जानूंगा अथवा इस प्रयत्न में प्राण दे दूंगा। कारण,संसार की ओर से तो और कुछ पाने की आशा है ही नही,यह तो शून्य स्वरूप है,दिन रात उडता जा रहा है,आज का सुन्दर आशापूर्ण तरुण कल का बूढा है। आशा आनन्द सुख - ये सब मुकुलों की भांति कल के शिशिर पात से नष्ट हो जायेंगे,यह इस ओर की बात,और दूसरी ओर है विजय का प्रलोभन - जीवन के समस्य अशुभों पर विजय की प्राप्ति की सम्भावना। और तो और स्वयं जीवन और जगत पर भी विजय प्राप्ति की सम्भावना है। इसी उपाय से मनुष्य अपने पैरों पर खडा हो सकता है। अतएव जो लोग इस विजय प्राप्ति के लिये सत्य के लिये धर्म के लिये चेष्टा कर रहे है,वे ही सत्य पथ पर है,और वेद भी यही उपदेश करते है,निराश मत होइये,मार्ग बडा कठिन है,- छुरे की धार पर चलने के समान दुर्गम फ़िर भी निराश मत होइये,उठो जागो और अपने चरम आदर्श को प्राप्त करो।

सारे धर्मों की चाहे वे किसी भी रूप में मनुष्य के निकट अपनी अभिव्यक्ति करते हों,यही एक सामान्य केंद्रीय भित्ति है। और वह है,संसार के बाहर जाने का अर्थात मुक्ति का उपदेश। इन सब धर्मों का उद्देश्य संसार और धर्म के बीच सुलह कराना नही है,पर धर्म को अपने आदर्श में द्रढ प्रतिष्ठित करना है,संसार के साथ बिना समझौता किये ही उसकी जटिल समस्या का समाधान करना है। प्रत्येक धर्म इसका प्रचार करता है और वेदान्त का कर्तव्य है - इन सभी महत्वाकांक्षाओं में सामजस्य स्थापित करना और संसार के सारे उच्चतम और निम्नतम धर्मों में विद्यमान सामान्य तत्व को अभिव्यक्त करना। हम जिसको अत्यन्त भ्रान्त अंशविश्वास कहते है,और जो सर्वोच्च दर्शन है,सबों की यही एक साधारण भित्ति है कि वे सभी इस एक प्रकार के संकट से निस्तार पाने का मार्ग दिखाते है,और अधिकांश में किसी प्रपंचातीत पुरुष विशेष की सहायता से अर्थात प्राकृतिक नियमों से नित्य मुक्त पुरुष विशेष की सहायता से इस मुक्ति की प्राप्ति करनी पडती है। इस मुक्त पुरुष के स्वरूप के सम्बन्ध में नाना प्रकार की कठिनाइयां और मतभेद होने पर भी - वह ब्रह्म सगुण है या निर्गुण मनुष्य की भांति ज्ञान सम्पन्न है,अथवा नही,वह पुरुष है या स्त्री है या निर्लिंग,इस प्रकार के अनन्त विचार तथा विभिन्न मतो के प्रबल विरोध होने पर भी मूलभूत तत्व एक ही है। विविध मतवादों के इस प्रचंड परस्पर विरोध के बावजूद हमे उन सबमें एकता का एक स्वर्ण सूत्र मिलता है,और इस दर्शन में ही इस स्वर्ण सूत्र की खोज हुयी है,जो हमारी द्रिष्टि के सामने थोडा थोडा करके प्रकाशित हुआ है,और वह सामान्य तत्व ही इस प्रकाशना का पहला सोपान है,कि हम सभी मुक्ति की ओर ही अग्रसर हो रहे है।

अपने सुख दुख विपत्ति और कष्ट - सभी अवस्थाओं में हम यह आश्चर्य की बात देखते है कि हम सभी धीरे धीरे मुक्ति की ओर अग्रसर हो रहे है। प्रश्न उठा - जगत वास्तव में क्या है? कहां से इसकी उत्पत्ति हुयी और कहां इसका लय है ? और इसका उत्तर था- मुक्ति ही इसकी उत्पत्ति है,मुक्ति में यह विश्राम करता है,और अन्त में मुक्ति में ही इसका लय हो जाता है। यह जो मुक्ति की भावना है कि वास्तव में हम मुक्त है,इस आश्चर्यजनक भावना के बिना हम एक क्षण भी नही चल सकते है,इस भाव के बिना तुम्हारे सभी कार्य,यहां तक के तुम्हारा जीवन भी व्यर्थ है,प्रतिक्षण प्रकृति यह सिद्ध किये दे रही है,कि हम दास है,पर उसके साथ ही यह दूसरा भाव भी हमारे मन में उत्पन्न होता रहता है,कि हम मुक्त है। प्रतिक्षण हम माया से आहत होकर बद्ध से प्रतीत होते है,पर उसी क्षण उस आघात के साथ ही - हम बद्ध है,इस भाव के साथी- और भी एक भाव हममें आता है कि हम मुक्त है,मानो हमारे अन्दर से कोई कह रहा है कि हम मुक्त है। पर इस मुक्ति की ह्रदय से उपलब्धि करने में अपने मुक्त स्वभाव को प्रकट करने में जो बाधायें उपस्थिति होती है,वे भी एक प्रकार से अनितिक्रमणीय है,तो भी अन्दर से हमारे ह्रदय के अन्तस्तल से मानो कोई सर्वदा कहता रहता है -मै मुक्त हूँ,मैं मुक्त हूँ,और यदि संसार के विभिन्न धर्मों का अध्ययन करो तो देखोगे,उन सभी में किसी न किसी रूप में यह भाव प्रकाशित हुआ है,केवल धर्म नही,धर्म शब्द को तुम संकीर्ण अर्थ में मत लो,वरन सारा सामाजिक जीवन इसी एक मुक्त भाव की अभिव्यक्ति है। सभी प्रकार की सामाजिक गतियां उसी एक मुक्त भाव की विभिन्न अभिव्यक्तियां है। मानो सभी ने जाने अन्जाने उस स्वर को सुना है,जो दिन रात कह रहा है,"हे थके हारे और बोझ से लदे हुये मनुष्यो ! मेरे पास आओ ! मुक्ति के लिये आवाहन करने वाली यह वाणी भले ही एक प्रकार की भाषा अथवा एक ही ढंग से प्रकाशित नही होती हो,पर किसी न किसी रूप में वह हमारे साथ सदैव वर्तमान है। हमारा यहां जो जन्म हुआ है,वह भी इसी वाणी के कारण हमारी प्रत्येक गति इसी के लिये है,हम जानें या न जानें पर हम सभी मुक्ति की ओर चल रहे है,उसी वाणी का अनुसरण कर रहे है,जिस प्रकार गांव के बालक वंशीवादक के संगीत से खिंचकर चले जाते थे,उसी प्रकार हम भी बिना जाने ही उस वाणी के संगीत का अनुसरण कर रहे है।

जब हम उस वाणी का अनुसरण करते है तभी हम नीतिपरायण होते है,केवल जीवात्मा नही वरन छोटे से छोटे प्राणी से लेकर ऊंचे ऊंचे मनुष्यों तक की सभा ने यह स्वर सुना है,और सब उसी की दिशा में दौडे जा रहे है,और इस चेष्टा में या तो हम परस्पर मिल जाते है या एक दूसरे को धक्का देते रहते है,इसी प्रतिद्वन्द्विता हर्ष संघर्ष जीवन सुख और मौत उत्पन्न होते है,और उस वाणी तक पहुंचने के लिये यह जो संघर्ष चल रहा है,समग्र विश्य उसी का परिणाम मात्र है। हम यही करते आ रहे है,यही व्यक्त प्रकृति का परिचय है।

इस वाणी के सुनने से क्या होता है ? इससे हमारे सामने का द्रश्य परिवर्तित होने लगता है। जैसे ही तुम इस स्वर को सुनते हो और समझते हो कि यह क्या है,वैसे ही तुम्हारे सामने का सारा द्रश्य बदल जाता है,यही जगत जो पहले माया का वीभत्स युद्ध क्षेत्र था,अब और कुछ अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर हो जाता है। तब फ़िर प्रकृति को कोसने की कोई आवश्यकता नही रह जाती है। संसार बडा वीभत्स है,अथवा यह सब वृथा है,यह कहने की भी आवश्यकता नही रह जाती। रोने चिल्लाने का भी प्रयोजन नही रह जाता। जैसे ही तुम इस स्वर का अर्थ समझते हो वैसे ही तुम जान लोगे कि इस सब चेष्टा इस युद्ध इस प्रतिद्वन्द्विता इस कठिनाई इस निष्ठुरता इन सब क्षुद्र क्षुद्र सुख एवं आनन्द आदि का प्रयोजन क्या है,तब यह सपष्ट समझ में आजाता है कि यह सब प्रकृति के स्वभाव से ही होता है,हम सब जाने अन्जाने उसी स्वर की ओर अग्रसर हो रहे है,इसीलिये यह सब हो रहा है। अतएव समस्त मानव जीवन समस्त प्रकृति उसी मुक्ति भाव को अभिव्यक्त करने की चेष्टा कर रही है,बस सूर्य भी उसी ओर जा रहा है,धरती भी इसी लिये सूर्य की परिक्रमा कर रही है,चन्द्र भी इसीलिये धरती के चारों ओर घूम रहा है,उस स्थान पर पहुंचने के लिये ही समस्त ग्रह नक्षत्र धावामान है,और वायु प्रवाहमान है। उस मुक्ति के लिये ही बिजली तीव्र घोष करती है,और मौत भी उसी के लिये चारों ओर घूम फ़िर रही है,सब कोई उसी दिशा में जाने का प्रयत्न कर रहे है। साधु भी उसी ओर जा रहे है,बिना गये वे भी नही रह सकते है,उनके लिये यह कोई प्रसंशा की बात नही। पापियों की भी यही दशा है,बडा दानी व्यक्ति उसी को लक्ष्य बनाकर सरल भाव से चला जा रहा है,बिना गये वह भी नही रह सकता है,और एक भयानक कंजूस भी उसी को लक्ष्य बनाकर चल रहा है,जो बडे सत्कर्मशील है,उन्होने भी उसी वाणी को सुना है,वे सत्कर्म किये बिना रह नही सकते है,और एक ओर घोर आलसी व्यक्ति भी उसी ओर जा रहा है,हो सकता है एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से अधिक ठोकरे खाकर जाये,लेकिन जाना वही है। जो व्यक्ति अधिक ठोकरें खाता है,उसे हम बुरा कहते है,और जो कम उसे सज्जन या भला कहते है,भला और बुरा,ये दोनो भिन्न चीजे नही है,दोनो एक ही है,उनके बीच का भेद प्रकारगत नही परिमाणगत है।

अब देखो यदि वह मुक्त भावरूपी शक्ति वास्तव में समस्त जगत में कार्य कर रही है,तो अपने विशेष आलोच्य विषय धर्म में उसका प्रयोग करने पर हम देखते है कि सभी धर्मों में इस भाव को स्वीकार किया है। अत्यन्त निम्न कोटि के धर्म को लो,जिसमें किसी मृत पूर्वज अथवा निष्ठुर देवता की उपासना होती है,इन उपास्य देवताओं अथवा मृत पूर्वजों के बारे में क्या धारणा है,यही कि वे प्रकृति से उन्नत है,इस माया के द्वारा वे बद्ध नही है,पर हां प्रकृति के बारे में उपासक की धारणा अवश्य बिलकुल सामान्य है। उपासक एक मूर्ख अज्ञानी व्यक्ति है उसकी बिलकुल स्थूल धारणा है,वह घर की दीवार को भेद कर नही जा सकता,अथवा आकाश मे विचरण नही कर सकता है,अत: इन सब बाधाओं का अतिक्रमण करना- बस,इसके अतिरिक्त उसकी धक्ति की कोई उच्चतर धारणा है ही नही। अतएव वह ऐसे देवता की उपासना करता है,जो दीवार को भेद कर या आसमान में उड कर आजा सकते है,अथवा जो अपना रूप परिवर्तित कर सकते है,दार्शनिक भाव से देखने पर इस प्रकार की देवोपासना में कौन सा रहस्य है,यह कि यहां भी वह मुक्ति का भाव मौजूद है,उसकी देवता सम्बन्धी धारणा प्रकृति सम्बन्धी अपनी धारणा से उन्नत है। और जो लोग तदपेक्षा उन्नत देवों के उपासक है,उनकी भी उस एक ही मुक्ति की दूसरे प्रकार की धारणा है,जैसे जैसे प्रकृति के सम्बन्ध में हमारी धारणा होती जाती है,वैसे ही वैसे प्रकृति की प्रभु आत्मा के सम्बन्ध में भी हमारी धारणा उन्नत होती जाती है,अन्त में हम एकेश्वरवाद में पहुंच जाते है,जो माया या प्रकृति को स्वीकार करता है,और जिसके मतानुसार मायाधीश एक ईश्वर है।

जहां सर्वप्रथम इस एक्श्वरवादसूचक भाव का आरम्भ होता है,वहीं वेदान्त का आरम्भ होता है,बेदान्त इससे भी अधिक गम्भीर अन्वेषण करना चाहता है,वह कहता है कि इस माया प्रपंच के पीछे जो एक आत्मा मौजूद है,जो माया का स्वामी है,पर जो माया के अधीन नही है,वह हमें अपनी ओर आकृष्ट कर रहा है,और हम सब भी धीरे धीरे उसी की ओर जा रहे है। यह धारणा है तो ठीक पर अभी भी यह धारणा शायद स्पष्ट रूप से युक्तिविरोधी नही है,जिस प्रकार ईसाई समुदाय की प्रार्थना में कहा जाता है,-मेरे ईश्वर तेरे अति निकट,वेदान्ती भी ऐसी ही प्रार्थना करता है,केवल एक शब्द बदल कर,-मेरे ईश्वर मेरे अति निकट,हमारा चरम लक्ष्य बहुत दूर है,प्रकृति से अतीत देश में है,वह हमें अपनी ओर खींच रहा है,उसे धीरे धीरे हमें अपने निकट लाना होगा। पर आदर्श की पवित्रता और अक्षुण्ता को को रखते हुये। मानो यह यह आदर्श क्रमश: हमारे निकटतर होता जाता है,अन्त में स्वर्ग का ईश्वर मानो प्रकृतिस्थ ईश्वर बन जाता है,फ़िर प्रकृति में और ईश्वर में कोई भेद नही रह जाता है,वही मानो इस देह मन्दिर के अधिष्ठाता देवता के रूप में और अन्त में इसी देह मन्दिर के रूप में बन जाता है,और वही मानो अन्त में जीवात्मा औ मनुष्य के रूप में परिज्ञात होता है। बस यही वेदान्त की शिक्षा का अन्त है,जिसको ऋषिगण विभिन्न स्थानों में खोजा करते थे,वह हमारे अन्दर ही है,वेदान्त कहता है- तुमने जो वाणी सुनी थी,वह ठीक सुनी थी,पर उसे सुनकर तुम ठीक मार्ग चले नही,जिस मुक्ति के महान आदर्श का तुमने अनुभव किया था,वह सत्य है,पर उसे बाहर की ओर खोजकर तुमने भूल की। इसी भाव को अपने निकट और निकटतर लाते चलो,जब तक कि तुम यह न जान लो कि यह मुक्ति यह स्वाधीनता तुम्हारे अन्दर ही है,वह तुम्हारी आत्मा की अन्तरात्मा है। यह मुक्ति तुम्हारा स्वरूप ही थी,और माया ने तुम्हे कभी भी बद्ध नही किया। तुम पर अपना अधिकार जमाने का सामर्थ्य प्रकृति में कभी नही था,डरे हुये बालक के समान तुम स्वप्न देख रहे थे कि प्रकृति तुम्हारा गला दबा रही है,इस भय से मुक्त होना ही लक्ष्य है,केवल इसे बुद्धि से जानना ही नही,वरन प्रत्यक्ष करना होगा- हम इस जगत को जितने स्पष्ट रूप से देखते है,उससे भी अधिक स्पष्ट रूप से देखना होगा। तभी हम मुक्त होंगे,और तभी हमारी कठिनाइयों का अंत हो जायेगा,तभी ह्रदय की सारी उलझने नष्ट होंगी,सारी वक्रतायें सरल हो जायेंगी तब यह विविधता और प्रकृति का भ्रम चला जायेगा। तब यह माया आज के समान भयानक अवसादकारक स्वप्न न होकर अति सुन्दर रूप में दिखेगी,और यह जगत जो इस समय कारागार के समान प्रतीत हो रहा है,क्रीडा क्षेत्र का रूप धारण कर लेगा। तब सारी विपत्तियां जटिलतायें और तो और हम जो सब यन्त्रणायें भोग रहे है,वे भी ब्रह्मभाव में परिणत हो जायेंगी और हमारे सम्मुख अपना प्रकृत स्वरूप अभिव्यक्त करेंगी,तब हम देखेंगे कि सारी वस्तुओं के पीछे सबके सारसत्तास्वरूप वही विद्यमान है और हम जान लेंगे कि वही हमारा वास्तविक अन्तरात्मास्वरूप है।
(स्वामी विवेकानन्द)

2 comments:

Mas said...

bahut badiya

Nitin said...

Bramha ko ek se anek me jane ki ichha hui/ aur srishti ka janam huwa/ jal thal aahash bana / thal yane prithvi , prithvi par 84 laksh yoniya bani/ inme sabse khas bana insan sirpf insan ki hi rid ki haddi sidhi(l) hai / baki jitne bhi jiv hai jinko rid ki haddi hai/ sabki aadhi(-) hai/ insanki rid ki haddi sidhi hone ke karan hi sirpf insan soch sakta hai / sansar bante samay -ve aur +ve shaktiya nirman hui/ +ve dev aur -ve danaw aur insan nuetral jo apni soch aur karmose dev ya danaw ban sakta hai/ apne hi karmose jivan aur mrutyu ke chakkar me ghumta rahega/ aur jab nirvikar hoga to phir bramha me vilin ho jayega / yane moksha ko prapta hoga/ manushya apnehi karma ke bhogse janam leta hai lekin is janam me usko pichla kuch yad nahi rahata/ is jivan me apne bhogo ko bhogte samay wah kis tarha se sochta hai aur vyavahar karta hai/ us se uske agla janam nirbhar hoga / is liye bhawan ne hume 84 lakh me ek banaya hai / 5 indriya diye hai/ to bhagwan ko hamesha shukriya kaheke hume apne hi bhog bhogte huye hamesha achha karm aur achhi soch rakhni chahiye/ jisse hamari agli gati sudar jaye / ye hamare hath me hai / dev ya danva banke jina hai ye hamara nirnya hoga, bhagwan ka nahi / humare liye dono raste khule hai/