Tuesday, October 26, 2010

मंत्र के भेद और दोष तथा दोष निवारण

मन्त्र तीन प्रकार के होते है - स्त्री लिंग पुल्लिंग और नपुसंक लिंग। स्त्री लिंग मन्त्रो में वे माने जाते है जिनके अन्त में ठ अर्थात स्वाहा लगे हों। जिनके अन्त में हुम और फ़ट होते है वे मन्त्र पुल्लिंग की संज्ञा में आते है। जिन मन्त्रों के अन्त मे नम: लगा होता है वे नपुंसक लिंग कहलाते है। इस प्र्काअर मन्त्रों की जातियां बताई जाती है,सभी मन्त्रों के देवता पुरुष है और सभी विद्याओं की स्त्री देवता मानी गयी है,वे सभी त्रिविध मन्त्र छ: कर्मों से युक्त होते है,छ; कर्म शान्ति,वश्य,स्तम्भन द्वेष उच्चाटन और मारण के रूप में माने जाते है। जिस मन्त्र में प्रणवान्त रेफ़ (रां) और स्वाहा का प्रयोग हो वे मन्त्र अग्नि सम्बन्धी कहे गये है। और जो मन्त्र भृगु बीज सं और पीयूष बीज बं से युक्त है वे सौम्य कहे गये है। सभी मन्त्रों को अग्नीषोमात्मक मानना चाहिये। जब स्वांस पिंगला नाडी में अर्थात बायीं नासा से स्वांस चल रही हो तो सोम सम्बन्धी मन्त्र जागृत होते है,और जब स्वांस इडा नाडी यानी दाहिनी नासा से चल रही हो तो आग्नेय मंत्र जागृत होते है। और जब दोनो स्वरों से स्वांस चल रही हो तो सभी मन्त्र जागृत होते है। यदि मन्त्र जब सो रहा हो यानी सोम के समय आग्नेय को जपा जाये तो वह अर्थ की बजाय अनर्थ देना शुरु कर देगा। प्रत्येक मन्त्र का स्वांस को रोककर उच्चारण नही करना चाहिये,सांस को खींचते समय बिन्दु युक्त अक्षरों का और सांस को छोडते समय विसर्ग वाले मन्त्रों को जपा जाना चाहिये। जैसे गायत्री मन्त्र के जाप में ऊँ को जाप करते समय पूरी सांस को खींचना चाहिये और भू: भुर्व: स्वाहा,में सांस को छोड देना चाहिये,फ़िर तत्सवितुर वरणेयम में सांस को खींच लेना चाहिये और भर्गो देवस्य धीमहि तक सांस को मामूली सा छोडना चाहिये और धियो योन: प्रचोदयात में पूरी सांस को छोड देना चाहिये। इस प्रकार से किये जाने वाले मन्त्रों से फ़ायदा होता है। यदि जपा हुआ मन्त्र देवता यानी चाही गयी शक्ति को जाग्रत कर सका तो वह सिद्ध देने वाला होता है,क्रूर कर्म के लिये आग्नेय मन्त्र का प्रयोग में लाना उचित होता है,और सौम्य कर्म के लिये सोम मन्त्र का फ़ल उपयुक्त होता है। शान्त ज्ञान और रौद्र यह मन्त्रों की तीन जातियां है,अगर शान्त मन्त्र में भी हुं फ़ट जोडा जाता है तो वह भी रौद्र रूप धारण कर लेता है।

छिन्नता आदि दोषों से युक्त मन्त्र साधक की रक्षा नही कर पाते है। छिन्न रुद्ध शक्तिहीन परांगमुख कर्णहीन नेत्रहीन कीलित स्तम्भित दग्ध त्रस्त भीत मलिन तिरस्कृत भेदित सुषुप्त मदोन्मत मूर्छित हतवीर्य भ्रान्त प्रध्वस्त बालक कुमार युवा प्रौढ वृद्ध निस्त्रिंसक निर्बीज धूमित आलिंगित मोहित क्षुधार्त अतिदीप्त अतिक्रूर व्रीडित प्रशान्तमानस स्थानभ्रष्ट बिकल अतिवृद्ध अतिनि:स्नेह और पीडित यह उनन्चास मन्त्र के दोष है। इनके लक्षणो में बताया जाता है कि जिस मन्त्र के आदि मध्य और अन्त में संयुक्त वियुक्त या स्वर सहित तीन चार बार या इससे अधिक रं बीज का प्रयोग किया जाता है,वह मन्त्र छिन्न हो जाता है। जिस मन्त्र के आदि मध्य और अन्त में दो या तीन बार लं भूमि बीज का प्रयोग होता है वह मन्त्र रुद्ध हो जाता है। प्रणव और कवच हुं यह तीन बार जिस मन्त्र मे आये हों वह मन्त्र लक्ष्मी युक्त हो जाता है,इस प्रकार का मन्त्र शक्तिहीन माना जाता है और दीर्घ काल के बाद फ़ल देने वाला होता है,जहां आदि में कामबीज क्लीं मध्य में मायाबीज ह्रीं और अन्त में अंकुश बीज क्रों हो वह मन्त्र परांगमुख जानना चाहिये,चिर काल में सिद्धि को देने के कारण दोष युक्त मन्त्र कहलाता है। यदि आदि मध्य और अन्त में सकार देखा जाये,तो वह मन्त्र कर्णहीन हो जाता है,जो बहुत कष्ट के बाद थोडी सिद्धि देने वाला होता है। यदि पंचाक्षर मन्त्र हो किंतु उसमे रेफ़ मकार और अनुस्वार नही हो तो उसे नेत्रहीन माना जाता है।वह क्लेश उठाने के बाद भी सिद्ध नही देता है। आदि मध्य और नन्त में हंस सं प्रासाद और वागबीज ऐं हो अथवा हंस और चन्द्रबिन्दु या सकार फ़कार अथवा हुं हो तथा जिसमें मा प्रा और नमामि पद न हो वह मन्त्र कीलित माना जाता है। इसी प्रकार मध्य मे और अन्त मे भी वे दोनो पद न हो तथा जिसमे फ़ट और लकार न हों,वह मन्त्र स्तम्भित माना गया है,जो सिद्धि में रुकावट डालने वाला है,जिस मन्त्र के अन्त में अग्नि रं बीज वायु  यं बीज के साथ हो तथा सात अक्षरों से युक्त दिखाई देता हो वह दग्ध संज्ञक माना जाता है। जिसमे दो तीन या छ: अक्षरों के साथ अस्त्र फ़ट दिखाई देता हो,उस मन्त्र जो त्रस्त माना जाता है,जिसके मुख भाग में प्रणवरहित हकार अथवा शक्ति हो वही मन्त्र भीत कहा जाता है,जिसके आदि मध्य और अन्त में चार म हों वह मन्त्र मलिक कहा जाता है,जिस मन्त्र के मध्यभाग में द अक्षर और अन्त और अन्त में दो क्रोध हुं हुं बीज हों और उनके साथ अस्त्र फ़ट भी हो तो व्ह मन्त्र त्रिस्कृत होता है। जिसके अन्द्त में म और य तथा ह्रदय हो और मध्य में वषट एव वौषट हो वह मन्त्र भेदित कहा जाता है। उसे त्याग देना चाहिये। जो मन्त्र तीन अक्षर युक्त हो और हंसहीन हो उस मन्त्र को सुषुप्त कहा जाता है,जो विद्या अथवा मन्त्र सत्रह अक्षरों से युक्त हो तथा जिसके आदि में पांच बार फ़ट का प्रयोग हुआ हो उसे मदोन्मत्त कहा जाता है। जिसके मध्य भाग में फ़ट का प्रयोग हो वह मूर्छित कहा जाता है,जिसके विरामस्थान में अस्त्र फ़ट का प्रयोग हो तो उसे हतवीर्य कहा जाता है,मन्त्र के आदि मध्य और अन्त मे चार अस्त्र फ़ट का प्रयोग हो तो उसे भ्रान्त कहा जाता है,जो मन्त्र अठारह या बीस अक्षर अक्षर वाला होकर कामबीज क्लीं से युक्त होकर साथ ई उसमें ह्रदय लेख और अंकुश के भी बीज हों तो उसे प्रध्वस्त कहा जाता है। साथ अक्षर वाला मन्त्र बालक आठ अक्षर वाला मन्त्र कुमार और सोलह अक्षर वाला युवा चौबीस अक्षरों से युक्त मन्त्र वृद्ध कहा गया है। प्रणवसहित नवार्ण मन्त्र को निस्त्रिस कहते है। जिसमे अन्त में ह्रदय (नम:) कहा गया हो और मध्य में शिरोमन्त्र स्वाहा का उच्चारण होता हो,और अन्त में शिखा वषट वर्म हुं नेत्र वौषट और अस्त्र फ़ट देखे जाते हो तथा जो शिव और शक्ति अक्षरों से हीन हों उस मन्त्र को निर्बीज कहा जाता है। जिसके आदि मध्य और अन्त में छ: बार फ़ट का प्रयोग देखा जाता हो वह मन्त्र सिद्धिहीन होता है। पांच अक्षर के मंत्र को मन्द और एकाक्षर मन्त्र को कूट कहा जाता है,उसी को निरंशक भी कहा जाता है। दो अक्षर का मन्त्र सत्वहीन चार अक्षर का मन्त्र केकर और छ: या साढे बारह अक्षर का मन्त्र धूमित कहा जाता है,वह निन्दित है। साढे तीन बीज से युक्त बीस तीस तथा इक्कीस अक्षर का मन्त्र आलिंगित कहा जाता है। जिसमे दन्तस्थानीय अक्षर हों वह मन्त्र मोहित कहा जाता है। चौबीस या सत्ताइस अक्षर के मन्त्र को क्षुधार्त कहा जाता है। ग्यारह पच्चीस अथवा तेइस अक्षर का मन्त्र द्रस कहा जाता है,छब्बिस सत्ताइस और उन्तीस अक्षर के मन्त्र को हीनांग माना जाता है। अट्ठाइस और इकत्तीस अक्षर के मन्त्र को अत्यन्त क्रूर माना जाता है। चालीस अक्षरों से लेकर तिरसठ अक्षरों का मन्त्र होता है उसे लज्जित कहा जाता है। पैंसठ अक्षरों के मन्त्र को शान्त मानस जानना चाहिये। पैंसठ अक्षर से निन्यानबे अक्षरों से युक्त जो मन्त्र है वे स्थान भ्रष्ट कहे जाते है। तेरह या पन्द्रह अक्षर के मन्त्र है वे विकल कहे जाते है। सौ डेढ सौ दो सौ इक्यानवे अथवा तीन सौ अक्षरों से युक्त जो मन्त्र होते है वे नि:स्नेह कहे जाते है। चार सौ से एक हजार अक्षरों के मन्त्र अत्यन्त वृद्ध कहे जाते है। एक हजार से अधिक अक्षरों के मन्त्र पीडित कहे जाते है,उनसे अधिक अक्षरों के मन्त्र को स्तोत्र की संज्ञा दी जाती है।

इन मन्त्रों को दोषमुक्त होने की विधि है कि योनिमुद्रासन में बैठ कर एकाग्रचित होकर जिस मंत्र को जपा जाये तो सिद्धियां प्राप्त होने लगती है। बायें पैर की एडी को गुदा के सहारे रखकर दाहिने पैर की एडी को भग या लिंग स्थान में रखकर बैठा जाये तो यह मुद्रा योनि मुद्रा कहलाती है। किसी भी मन्त्र के दोष से बचने के लिये इस आसन का प्रयोग करना चाहिये।

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