Sunday, August 29, 2010

इक्कीसवीं सदी और विक्रमादित्य का राज

हमारा भारतीय विक्रमादित्य का पंचांग ईशा के पंचांग से 57 साल पहले बना,इसलिये जो मान्यता समय की विवेचना के लिये संसार में दी जानी चाहिये वह पहले विक्रमी संवत के नाम से चलने वाले पंचांग को देनी चाहिये। लेकिन बीच के अंग्रेजी शासन और उनकी मातृ भाषा अंग्रेजी का प्रभाव भारतीय सभ्यता पर इस कदर हावी हुआ कि हम भारतीय लोग अपनी सभ्यता को तिलांजलि देकर दूसरी सभ्यता को अपना मानने लगे। कहने के लिये तो यह कहा जाने लग कि क्या किया जाये अंग्रेजी भाषा का सन सम्पूर्ण विश्व में मान्य है और आज का युग विश्व में किसी से भी बात करने के लिये एक ही तारीख को अगर प्रचार प्रसार में लिया जायेगा तो वह अधिक सरल होगा,लेकिन हम अपनी तिथि को तारीख में बदलने के कारण किन किन रीतियों को अपने रिवाजों को भूलते जा रहे है वह एक सोचने वाला विषय है। भारत वर्ष विश्व के गुरु के रूप में विद्यमान था,आज भी जो भी शुद्ध भारतीय है वह भारत वर्ष की पुरानी मान्यता को कहीं से भी दूर नही करना चाहता है,हमारी तिथि चन्द्रमा की कलाओं पर निर्भर होती है,चन्द्रमा को माता के रूप में माना जाता है,और माता की प्रकृति के अनुसार हम अपनी जीवन शैली को जिया करते है,उसी के खून से हमे पौरुष मिला है उस पौरुष को बदल कर हम कितने सुखी है वह अगर हम अपनी अन्तरात्मा से अकेले में सोचें तो बहुत कुछ समझने को मिलेगा। पूर्ण चन्द्र की तिथि को पूर्णिमा और विलय चन्द्र की तिथि को अमावस्या के नाम से जाना जाता है। पूर्णिमा सकारात्मकता की तिथि है,और जो भी सकारात्मक कार्य किये जाते है वह पूर्णिमा को करने से जरूर पूरे होते है,इस दिन समुद्र में भी पानी अपनी गति को बढा देता है,दीर्घ ज्वार के रूप में वह अधिक से अधिक स्थान को पानी से घेरने का प्रयास करता है,प्राणी जगत में भी शरीर में पानी की मात्रा है और जब पूर्णिमा की तिथि होती है तो प्राणी जगत में बडे बडे सकारात्मकता वाले प्रभाव देखने को मिलते है। मनुष्य के अन्दर भी सत्तर प्रतिशत से अधिक पानी है,जब इस तिथि को समुद्र जैसे पानी के अन्दर उछाह आ सकता है तो मनुष्य के शरीर में क्यों नही आ सकता है। यही हाल अमावस्या की तिथि के अन्दर बिलकुल नकारात्मक शैली के रूप में देखा जाता है,इस तिथि को समुद्र में भी लघु ज्वार आता है और समुद्र का पानी भी अधिक से अधिक शान्त रहने की क्रिया को अपनाता है,जो भी समझदार लोग है वे किसी भी बडे काम को इस दिन शुरु नही करते है,अधिकतर जो भी काम स्थाई रूप से किये जाते है वे इस दिन बन्द रहते है बिल्डिंग बनाने वाले कारीगर आज भी इस दिन छुट्टी का दिन रखते है। यह दिन पितृ पक्ष का दिन कहा जाता है,लोग अपने अपने गुजरे पूर्वजों के लिये इस दिन मान्यता रखते है उनके लिये भोजन बनाकर गायों को और ब्राह्मणों को तथा फ़कीरों को खिलाया जाता है। आज भी शादी सम्बन्ध के लिये सावों का इन्तजार रहता है,धनु के सूर्य को तथा मीन के सूर्य को मलमास की उपाधि दी जाती है,इन महिनों में कोई भी संस्कार से युक्त अपने घर में कोई मंगल कार्य नही अपनाता है। यह सब महाराजा विक्रमादित्य के जमाने से ही शुरु हुआ था,लेकिन हमने अपने दिलों से उन महापुरुषो के ज्ञान युक्त व्यवहारों से बिलकुल निकाल दिया है,जितना हम पश्चिमी सभ्यता की तरफ़ चले जा रहे है उतना ही हम अपने देश काल और परिस्थिति के अन्दर घिर कर परेशान होते जा रहे है। जिस तिथि के आदर्श को हम नही समझ पा रहे है,जिस तिथि को किसी न किसी देवता से जोडा गया है,उस तिथि की जगह पर हम अपने मन में तारीख को लेकर चल रहे है,कहावत है जैसा देश वैसा वेष लेकिन उस कहावत के अन्दर भी हम अपने को नही ले जा पा रहे है। जिस देश में यह संस्कृति निवास करती है वहां एक ही जलवायु है,केवल शीत ऋतु का राज है,लेकिन हमारे देश में अधिकांश भू भाग में तीन ऋतु अपना राज करती है,हमारे देश के व्यक्ति को तीनों ऋतुओं के लिये अपना अपना बन्दोबस्त करना पडता है,सर्दी में सर्दी का गर्मी में गर्मी का और बरसात में बरसात का,अंग्रेजी शासन वाले देखों में केवल जाडे की ही ऋतु होने से वे अपने लिये केवक एक ही ऋतु का बन्दोबस्त करते है,उनके पास सर्दी से बचने के लिये ही उपाय करना जरूरी होता है। केवल एक ऋतु से ही जूझने के लिये जो खर्च करेगा,और जो तीन ऋतु का सामान खरीदने और बन्दोबस्त करने के लिये खर्च करेगा तो किसके पास अधिक खर्चा होगा,कौन अधिक कार्य क्षमता को बढाने के लिये अपना हौसला व्यक्त करेगा। इस बात को हम नही समझ पाते है,हम अपने लिये उनकी बराबरी की सोचते है तो यह हमारी बेवकूफ़ी ही कही जायेगी। भारत वर्ष में प्रत्येक तिथि को कोई ना कोई व्रत अनुष्ठान करने का औचित्य है,और उसका अन्तर्ज्ञान के लिये बहुत बडा महत्व है,लेकिन उन सब बातों को भूल कर हम उसी सभ्यता का अनुसरण करने के पीछे पडे है जिस सभ्यता से दूर भागकर लोग हमारे घर में आकर रहने को लालियत है।
इतिहास देता है विश्वास
इतिहास की जानकारी से ही आगे का समय चलता है,समय को जानने वाले ही समय का सदुपयोग कर सकते है,जिन्हे अपने समय और संस्कृत के बारे में पता नही है वे अपने को चलाने के लिये या तो खुद के उपक्रम से चलने की कोशिश करते है और बिना अच्छा बुरा समझे जब सामने आफ़त आती है तो अपने को पहले आफ़त से आहत करते फ़िर संभलने की तैयारी करते है,साथ ही यह जरूरी नही है कि जो आफ़त गुजर गयी है वह दुबारा आये भी और नही भी आये। जो समझदार होते है वे अपने को दूसरों के ज्ञान के अनुसार चलाने की कोशिश करते है,ज्ञान को प्रदान करने वाला अगर उस आफ़त से जूझ चुका है तो वह बता देगा कि अमुक आफ़त के समय अमुक हानि होती है,लेकिन जो फ़िर भी उसे ज्ञान के होने के बाद भी अंजवाने की कोशिश करता है वह मूढ मति के अलावा कुछ और नही कहा जा सकता है। ज्ञान को देने वाला भले ही अपनी जानकारी के अनुसार ज्ञान को दे रहा है और जब उस पर उस समय आफ़त आयी थी तो वह काल दूसरा था लेकिन समय के अनुसार कोई उस आफ़त से बचने का उपाय कर दिया गया है तो पुराने बताये गये के अनुसार नहीं चल कर आज के ज्ञान को भी समझना जरूरी है। महाराजा विक्रमादित्य ने अपने जमाने में जो ज्ञान प्राप्त किया था,उस ज्ञान को नही मानने वाले भी थे,जिन्हे उनके जमाने में चार्वाक मत से प्रस्तुत किया गया था। जब नियम प्रसारित किये गये कि अमुक दिन अमुक समय चन्द्रमा नही निकलेगा,तो चार्वाक लोगों को भी खगोलीय ज्ञान को समझने के लिये आगे आना पडा। वे समझे, और पराशक्तियों के बारे में जब शंका करने लगे कि कभी किसी को शमशान में जाने के बाद वापस आते नही देखा है,तो शंका को हटाने के लिये पुनर्जन्म जिन बच्चों ने लिया था उन्हे राज्य में इकट्ठा किया गया,और उनके द्वारा बताये गये कारणों की पुष्टि की जाने लगी,फ़िर इसके बाद चार्वाक लोगों की शंका धातु और पाषाण से बनी प्रतिमाओं के प्रति हुयी कि इन कारकों से बनी वस्तुओं में ताकत कहाँ से आ सकती है,अगर इनके अन्दर ताकत होती तो जो मूर्तिया तोडी जाती है तो भगवान अपनी रक्षा क्यों नही करते,इस शंका के निवारण के लिये आसमानी बिजली का प्रयोग किया गया कि वह अपना आस्तित्व धातु और पत्थर के अन्दर कैसे बनाती है,इसके बारे में राजा भोज (राजा विक्रमादित्य के बाद के शासक) के राज्य के ग्रंथों में लिखा पाया गया कि जब चार्वाक लोगों की गति निरंतर बढने लगी और वे भौतिक कारणों पर ही विश्वास करने के प्रति अपनी अपनी राजनीति फ़ैलाने लगे और भगवान से तथा पराशक्तियों वाले कारणों से दूर हटने के लिये जोर देने लगे तो,एक प्रयोग को किया गया,बरसात के दिनो में ऊंचे स्थानों में स्थित पेडों और जहां आसमानी बिजली का अधिक गिरना होता था,उन स्थानों पर लिंगनाइट के पत्थरों से बनी मूर्तियों को रखा गया,धातु से बने पात्रों को रखा गया,और उनकी निगरानी रखी गयी,जब किसी मूर्ति या धातु के बर्तन पर आसमानी बिजली गिरी तो कुछ काल बाद भी वह बिजली उन पात्रों और मूर्तियों में विद्यमान रही,तथा चार्वाक लोगों की सभा बुलाकर उन मूर्तियों और धातु के बर्तनों को उनसे छूकर उसका असर बताने के लिये कहा गया,जब उन्हे इस तडित विद्युत का असर झटके के रूप में मिला तो उन्हे समझाया गया कि जनता जब किसी मूर्ति चाहे वह धातु की बनी हो या पत्थर की उसमें अपनी अपने भावनाओं और श्रद्धा को पूरित करती है तो उस मूर्ति या धातु में भावनाओं के रूप में प्रेषित विद्युत हमेशा के लिये स्थिर हो जाती है वही कार्य पूजा पाठ और कर्मकांड के लिये बताया गया कि बिना पूजा और कर्मकांड के मंत्र शक्ति को प्राप्त नही किया जा सकता है,समिधा के रूप में हवन सामग्री को प्रयोग करना और हवा के अन्दर कार्बन उत्सर्गों को उत्पन्न करने के बाद भावनाओं को वातावरण में फ़ैलाना आदि समझा सका।
धर्म के चलने का कारण
हिन्दू धर्म जब से बना है वह अपने आप चल रहा है। इस धर्म के अनुसार जो भी कार्य धर्म से किये जाते है वे अपने अपने समय पर अपने आप पूरे होते है। उन्हे पूरा करने के लिये कोई विशेष मेहनत या प्रयास नही करने पडते है। सूर्य चन्द्र और अन्य ग्रहों की शक्ति को समझा गया उनके उदय अस्त होने का कारण और समय का पता किया गया। बुद्धि के बदलने और सामाजिक परिवेश को आपस में जोडा गया,जंगल में रहने वाले और जन समुदाय के बीच में रहने वाले लोगों के बीच के अन्तर को समझा गया। कई संस्कृतियों को एक साथ जोड कर अलग अलग प्रयोग किये जब सभी का समाधान हो गया तो उन्हे शास्त्रों के रूप में आपस में जोड कर समाज के अन्दर प्रकट किया गया। हिन्दू धर्म में जो भाषा बनाई गयी उसका एक एक अक्षर भी पूज्य देवी देवताऒं की शक्ति से पूर्ण बीजाक्षर के रूप में माना गया। माँ की कल्पना में बच्चे के प्रथम उद्गारों को प्रकट किया गया.अक्षर म के ऊपर रखी चन्द्र बिन्दी को उदय होने के समय के चन्द्रमा और चन्द्रमा के अन्दर उपस्थित तारे को प्रकट किया गया,म के आगे बडे आ की मात्रा को प्रयोग करने का कारण भी पिता के पीछे चलने का कारण बनाया गया और उन सब को एक कडी में पिरोकर समाज में प्रस्तुत किया गया। जब धर्म का रूप इतना गहरा व्याप्त हो गया कि उसके टूटने के कोई आसार नही दिखे फ़िर भी भविष्य के लिये धर्म को सुरक्षित करने के लिये मन्दिर धर्म स्थान धर्म तीर्थों का निर्माण किया गया,विशेष समय में विशेष समय में स्नान का फ़ल प्रतिपादित किया गया आदि कारण इस धर्म को कालांतर तक रखने के लिये कारण बनाये गये।
लोग क्यों अपने ही धर्म को त्यागने के लिये मजबूर हो जाते है
मनुष्य शरीर के ही नही किसी प्राणी विशेष के शरीर के अणु देखने से सुनने से सूंघने से स्पर्श करने से जागृत हो जाते है। प्यार की भाषा को एक जानवर भी समझता है,इन्सान तो बुद्धि वाला प्राणी है ही,किसी जानवर को लकडी से पीट दिया जाये तो वह कभी पास नही आयेगा और डर की वजह से दूर दूर ही भागेगा। कारण उसे स्पर्श ज्ञान है उसके लकडी से आहत होने वाले भाव से प्रताणित किया गया था,और उसके शरीर के अणु उस आहत वाली भावना को समझकर ही उसे दूर भगाने के लिये दूर करते है। मानव जीवन का परिवेश कालान्तर की बदलती सभ्यता से और संस्कृति से बदलने लगा है,कुछ बातों को छोडकर उसे कुछ भी पता नही है,आज का मानव इतना अकेला हो गया है कि भारत के दस प्रतिशत लोगों को अपने दादा या नाना नानी के नामों का पता नही है,जब उन्हे दादा दादी के नामों का पता नही होगा तो उन्हे अपने कुल का क्या पता होगा,यह सब मनुष्य के दिमाग की प्रवृत्ति का परिणाम ही माना जाता है,उसके दिमाग के अणु नही जगाये जा रहे है वह अपने को केवल अकेला समझकर अपने ही पेट को पालने और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिये कई प्रकार के कारण अपने आप ही प्रस्तुत करता है,किसी सभा समाज सोसाइटी को वह केवल अपनी भावनाओं की पूर्ति और स्वार्थ के रूप में जानता है। आज भारत में जितनी भी अंग्रेजी विचारधारा की सोसाइटी बनी है वे केवल व्यवसायिक परिवेश की इच्छा की पूर्ति के लिये बनी है,किसी भी सोसाइटी में शरीर मन और समाज की एकता के बारे में नही सिखाया जाता है,लोगों का सदस्य बनना केवल उनकी व्यवसायिक प्रक्रिया को प्रदर्शित करना है कि उनकी सोसाइटी में इतने सदस्य है और इतने सदस्यों से उनका इतना व्यापार चल रहा है। किसी व्यक्ति के शरीर के अणुओं को जाग्रत करने के लिये उसे कुछ दिखाना पडता है उसे कुछ सुनाना पडता है,उसे कुछ महसूस करवाना पडता है,इस बात की जानकारी बडे बडे व्यवसायिक लोग अपने अपने अनुसार कर रहे है। किसी से प्रतिश्पर्धा करने के समय वे जिन बातों को सामने रखते है उनके अन्दर केवल समझायस की बात ही होती है,उसके बाद जो कुछ उनके द्वारा प्रस्तुत किया गया है वह कितनी अच्छी गुणवत्ता का है किसी को भी समय रहते तक पता नही चलता है। शरीर के अणु जगने की क्रिया को समझने के लिये किसी अबोध बच्चे की पुकार को सुनिये,वह चाहे मनुष्य का हो या जानवर का जिसके अन्दर ममत्व है वह उस बच्चे की सहायता के लिये भाग लेगा,किसी झगडे की शुरुआत में गाली गलौज का रूप देखिये,गाली लोग मुंह से देते है सुनी कान से जाती है और फ़ूटते सिर है,मरना शरीर को पडता है। इसी प्रकार से हमारे शरीर के अणु धर्म के प्रति तभी जाग्रत होते है जब हम धर्म के बात को समझते है,दो हजार सरसठ साल से जो धर्म और साहित्य चला आ रहा है,वह अभी तक नही मित पाया है तो आगे उसके मिटने की कल्पना कैसे की जा सकती है। इस बीच में कितने बर्बर शासक पैदा हो गये है,कितने अपने अपने धर्म को बदल कर दूसरे धर्मों में चले गये है,लेकिन लोगों की बुद्धि को बदलना किसी के वश की बात नही रही,तीज त्यौहार शादी सम्बन्ध पूजा पाठ रीति रिवाज नाम खानपान जाति वर्ण व्यवस्था के रूप में आज भी महाराज विक्रमादित्य का आदेश सर्वोपरि माना जाता है। कितना ही उस सूर्य पर धूल डालने की कोशिश की जाये लेकिन वह पंचांग धर्म कर्म और विश्वास के साथ आज भी जिन्दा है,चाहे वह इक्कीसवीं सदी हो या बाइसवी या आगे की।
क्यों माना जाता था ज्योतिष कर्मकाण्ड आयुर्वेद और अध्यापन एक साथ
दिन रात आहार विहार और इन सबके बारे में मिलने वाला ज्ञान ज्योतिष कर्मकाण्ड आयुर्वेद और अध्यापन के साथ जुडा हुआ है। ज्योतिष से समय की जानकारी,कर्मकाण्ड से मानसिक भावना,आयुर्वेद से समयानुसार लिये जाने वाले आहार विहार,और अध्यापन से इन सब कारणों के प्रति प्राप्त किया जाने वाला ज्ञान एक साथ जुडा है। ज्योतिष से पता है कि सर्दी की ऋतु है,कर्मकाण्ड की भावना से माना जाता है कि आहार में ली जाने वाली वस्तु कितनी शुद्ध है और कितनी अशुद्ध है,आहार विहार से जाना जाता है कि गर्म प्रकृति और ठंडी प्रकृति की वस्तुओं के सेवन से सर्दी की ऋतु में क्या असर होता है,अध्यापन की कला जब तक व्यक्ति के अन्दर नही है तो वह इन कारणॊं से पडने वाले अच्छे या बुरे परिणामों को जगत के व्यवहारिक ज्ञान के बिना कैसे बता पायेगा। महाराजा विक्रमादित्य के राज में इन गुंणों से पूर्ण व्यक्ति को ही ज्योतिष,आयुर्वेद,कर्मकाण्ड और अध्यापन का पेशा करने के लिये नियुक्त किया जाता था। ज्योतिष में तत्वों की जानकारी दी जाती है,ग्रहानुसार तत्वों का विवेचन किया जाता है,तत्व की गर्म सर्द समान बातों का ज्ञान तत्व से मिलता है। आयुर्वेद में पृथ्वी पर जल में और हवा में मिलने वाले तत्वों की विवेचना मिलती है,वह वनस्पति के रूप में वनस्पति के द्वारा उत्पन्न फ़लों और फ़ूलों के रूप में पत्तियों जडों और टहनियों के रूप में यह पृथ्वी तत्व के रूप में माने जाते है,फ़ूलों फ़लो वनस्पतियों से मिलने वाली सुगंध को वायु तत्व या आसमान तत्व से प्रकाशित किया जाता है,वनस्पति को और उसके द्वारा उत्पादित कारकों को प्रयोग करने के बाद शरीर की तासीर गर्म सर्द या समान रहती है यह सब आयुर्वेद का भाव बताता है,कर्मकाण्ड का मुख्य उद्देश्य वनस्पति को प्रयोग करने के लिये शोधन करने वाला स्थान व्यक्ति और उत्पादन के लिये प्रयोग किये जाने वाले पात्रों के प्रति विवेचना की जाती है,अध्यापन से प्रयोग के बाद स्थान काल और समुदाय के द्वारा व्यक्त की गयीं प्रतिक्रियाओं का ज्ञान दिया जाता है। इसी लिये महाराजा विक्रमादित्य के जमाने में ज्योतिष आयुर्वेद कर्मकाण्ड और अध्यापन एक साथ मानना जरूरी था।

1 comment:

Unknown said...

jabardast jankari di gayee hai.
kotishah dhanyawad.
Chandra Mohan