Sunday, August 29, 2010

सोऽहम

शरीर की गति के लिये और जीव की उपस्थिति के लिये प्राणवायु का होना जरूरी है। बिना प्राण वायु के शरीर को मृत माना जाता है भले ही अलावा अडतालीस अन्य वायु शरीर में उपस्थित बनी रहें। स्वांसा प्रतिश्वांसा की गति को ध्यान पूर्वक ध्यानावस्था में सुनने से जो शब्द प्राप्त होता है उसे "सोऽहम" शब्द का नाम दिया गया है। जब स्वांस का आना होता है तो "सो" जितनी देर स्वांस शरीर में विश्राम कहती है तो "ऽ" और जब स्वांस शरीर से बाहर जाती है तो "हम" शब्द की उत्पत्ति होती है। यह तीन शब्द अपने अपने स्थान पर अपने अपने रूप को प्रस्तुत करते है,शब्द "सो" का स और ओ दो अक्षरों की सन्धि से बना है,ब्रह्म की उपस्थिति से दोनो अक्षरों का सम्बन्ध है, अक्षर "ऽ" का ब्रह्म की उपस्थिति,ब्रह्म की पालना के रूप में मानी जाती है और दीर्घ लघु अवस्था की उपस्थिति देती है,तथा "हम" समाप्ति की तरफ़ संकेत करती है,लेकिन दो अक्षर ह और म के द्वारा जो भाव मिलता है वह शरीर के अन्दर उपस्थिति जल रूपी समुद्र के सोखने के रूप में भी माना जाता है,जैसे सांस को छोडते समय शरीर की गर्मी से वाष्प बने जल को उत्सर्जित करना पडता है। जिसके अन्दर प्राणवायु भी उपस्थिति होती है,लेकिन जो प्राण वायु शरीर के अन्दर आती है और सो के रूप में अपने को प्रकट करती है वह नई चेतना के साथ नई शक्ति को लेकर आती है,उस शक्ति के अन्दर कौन सा परमाणु शरीर के अन्दर आकर अपना प्रभाव देने के लिये आता है इस बात को केवल साधक ही समझ पाते है साधारण के वश की बात नही होती है। जितनी देर स्वांस का शरीर के अन्दर रुकना होता है उतनी देर वह शरीर की पालना करती है,शरीर के अन्दर जो भी क्रियायें होती है उन सबका लेखा जोखा अपने साथ समेटती है और हम के रूप में बाहर निकल कर ब्रह्मांड के अन्दर फ़ैल जाती है। स्वस्थ शरीर से यह क्रिया एक दिन और रात में 21600 बार होती है,यानी शरीर को चौबीस घंटे में 21600 बार जन्म लेना क्रिया करना और मरना पडता है। यह शास्त्रों के अनुसार अजपा जाप भी कहा जाता है किसी मंत्र को नही जपने से भी यह जाप जीवन पर्यंत चला करता है। इस जाप के लिये किसी भी गुरु और ज्ञानी की आवश्यक्ता नही पडती है,और ना किसी ध्यान समाधि की जरूरत पडती है। इस जाप के बिगडने पर आत्मा की दुर्गति होती है,शरीर की क्रियाओं के द्वारा आत्मा को कष्ट होता है,आत्मा को कष्ट होने पर मनसा वाचा कर्मणा जो भी दूसरी आत्मायें कष्ट देने की कारक होती है,उन्हे ब्रह्म में जाकर अपने हिसाब किताब को चुकाना पडता है,यह हिसाब किताब लगातार चौबीस घंटे में 21600 बार लिखा जाता है,और प्रत्येक सोचे गये बोले गये और किये गये कर्म का अच्छा समान और बुरा फ़ल देने के लिये आने वाली स्वांस के साथ परमाणु अपना असर शरीर के अन्दर करता है। शरीर मे खुशी के समय शरीर में किसी अनुभूति के कारण गम के समय यह क्रिया बिगड जाती है,और जब यह क्रिया बिगड जाती है तो सोऽहम शब्द के अन्दर समान क्रिया में भेद पैदा हो जाता है,और उसी भेद का फ़ल शरीर में कमजोरी रोग और मानसिक तनाव के रूप में देखा जा सकता है। जब इस क्रिया में लगातार अवरोध पैदा होने लगता है तो शरीर से आत्मा का पलायन करना जरूरी हो जाता है,जैसे किसी गाडी में बैठ कर जाना हो और रास्ते में बार बार गाडी खराब हो जाये तो उस गाडी को छोडना ही पडता है दूसरी गाडी का इन्तजार और उसके अन्दर बैठना पडता है। सन्तों ने इसलिये ही आत्मा को समान भाव से शरीर में कालान्तर तक रोकने के लिये उपाय बताये है कि प्राणी को समान भाव से चलना चाहिये,उसे सुख दुख से कोई मतलब नही रखना चाहिये। समान भाव से जीवन व्यतीत करने पर इस अजपा में बाधा नही आयेगी और जीवन सुरक्षित निकल जायेगा,जो कर्म करने के लिये प्रकृति ने भेजा है वह कर्म आराम से किया जा सकेगा। अगर शरीर की गति खराब हो जाती है तो उसी कर्म को करने के लिये बार बार जन्म लेना पडेगा और जन्म मृत्यु का दुख सहन करना पडेगा,तथा किया जाने वाला कर्म भी आगे के जीवन में अपने अनुसार कई गुना होकर उपस्थित होगा और शरीर तथा आत्मा को वह कर्म पूरा करने के लिये और अधिक मेहनत और समय का भोग करना पडेगा।
   शरीर की इन्द्रियां ही सोऽहम को बिगाडने के लिये अपना अपना कार्य करती है। जीभ को खट्टा मीठा चरपरा कडवा नमकीन सरल सभी तरह के स्वाद परखने के लिये बनाया गया है,इसी जीभ को अपनी उपस्थिति के आभास के लिये बोलना अपने वचनों को प्रसारित करने के लिये बनाया गया है,अगर यह जीभ केवल स्वाद को लेने के लिये अपना कार्य शुरु कर देती है तो स्वाद के कारण या तो भोजन को अधिक खाया जायेगा,या कम खाया जायेगा,इस कम खाने और अधिक खाने के अन्दर सोऽहम की गति बिगड जायेगी,जैसे अधिक खाने के बाद शरीर में सो की मात्रा कम आयेगी,और ऽ की मात्रा भी कम रहेगी वह शरीर में कम देर ठहर पायेगा,साथ ही हम की मात्रा में भी कमी आजायेगी,इन तीनो की मात्रा में कमी होने के कारण शरीर की अन्य 48 वायु अपनी अपनी गति को कम या अधिक कर लेंगी,उनके अन्दर अपान वायु की अधिकता होने के कारण पेट फ़ूलेगा और ब्रह्म कमल यानी नाभि पर वजन पडेगा,परिणाम में जो भी शरीर की गतियां उनके अन्दर शरीर में चेतना का अभाव होगा नींद अधिक आयेगी और किसी भी काम को करने का मन नही होगा,जब काम पूरा नही होगा तो प्रकृति के कोपभाजन का सामना करना पडेगा। अगर भोजन कम किया लिया गया है तो इन तीनो की गति अधिक हो जायेगी,इन तीनो की गति अधिक होने से शरीर की जठराग्नि प्रबल हो जायेगी,और शरीर के अन्दर क्रोध की उत्पत्ति अधिक होने लगेगी,शरीर कमजोर होने लगेगा शरीर चिढचिढा हो जायेगा।
   चिन्ता करने से भी सोऽहम शब्द में बदलाव आ जाता है वह चिन्ता चाहे किसी दुख के कारण हो या वह चिन्ता चाहे किसी लोभ के कारण हो या वह चिन्ता चाहे किसी प्रिय के वियोग की हो,वह चिन्ता चाहे अहम को बनाये रखने या अहम के टूटने की हो,सभी प्रकार की चिन्तायें इस शब्द को बिगाडने वाली होती है और शब्द बिगडता है तो शरीर की क्षति होती है आत्मा को कष्ट होता है और एक आत्मा के कष्ट होने पर जो भी ब्रह्माण्डीय आत्मायें है सभी पर अपना अपना असर पडता है। यह जरूरी नही है कि आत्मा से सम्बन्धित पुरुष स्त्री या अन्य जीव जन्तु उसी के वशीभूत ही हों। सार रूप में समझा जा सकता है कि जैसे शरीर से निकलने वाली दुर्गंध किसी भी प्राणी को अपना असर देती है,शरीर से निकली सुगन्ध किसी भी प्राणी के लिये अपने प्रकार से असर कारक होती है शरीर से किया गया कर्म संसार के प्रत्येक प्राणी के लिये अपने अपने अनुसार लघु या वृहद फ़ल देने का कारक होता है,इसलिये जो भी कर्म करना चाहिये,वह केवल अपने हित के लिये मान्य रखकर नही करना चाहिये,वह अपने हित के लिये किया जरूर जायेगा,लेकिन अहम से दूर जाकर जब उस काम को समझो तो वह कहीं न कहीं से दूसरों को भी प्रभावित करता है। चिन्ता करने से लगातार हम शब्द का दूर रहना होता है और शरीर के अन्दर खाये पिये जाने वाले पदार्थ अपनी गति को भूल जाते है,अपान वायु अपनी सीमा से बाहर आकर ब्रह्म रंध को आहत करती है,और उस वायु की सडन से सिर दर्द कालान्तर में पेट दर्द और आंतों में छाले आदि पडना तथा लगातार चिन्ता करने डायबटीज जैसे रोग पैदा हो जाते है और हमेशा के लिये इस शब्द का बिगडना माना जाता है शरीर से आत्मा दूर जाने के लिये अपने प्रयास शुरु कर देती है,अधिकतर मामलों में जब चिन्ता की गति को प्रकृति के द्वारा तोडना होता है तो वह लम्बी स्वांस के द्वारा शरीर को अवगत करवाती है कि अपने वास्तविक रूप में आओ लेकिन अहम की गति नही टूटने के कारण गति बन नही पाती है।
   सोऽहम शब्द को वास्तविक रूप से देखने के लिये इसकी गति को समझने के लिये सहज योग का सहारा लिया जा सकता है। सहज योग की प्राथमिक उपलब्धि के लिये एकान्त स्थान में आरामदायक स्थिति में बैठ कर दोनों आंखों को बन्द करने के बाद चित्त को नाक के ऊपर दोनो भोंहों के बीच में स्थापित करना पडता है,सभी तरह के विचारों के आदान प्रदान को रोकना पडता है,अपनी इस स्वांस की गति को अपने अन्दर के भाव में सुनना पडता है,चौदह मिनट तक अभ्यास करने के दौरान स्वांस की गति जैसे ही सुषुम्ना नाम की नाडी में पहुंचती है सोऽहम शब्द की उत्पत्ति शुरु हो जाती है,इस गति को पहिचानने के लिये अधिक से अधिक अभ्यास की जरूरत पडती है,लेकिन समय सीमा से अधिक इस गति को नही करना चाहिये,कारण मनुष्य जीवन का उद्देश्य कर्म के लिये माना जाता है और कर्म की गति को घटाकर अगर विकर्मों को बढा दिया जायेगा तो भी शरीर को वापस आकर अपने अपने कर्मों को तो करना पडेगा। गीता भागवद वेद पुराण शास्त्र सभी इसी गति को सामान्य रूप से करने और अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मों की तरफ़ जाने के लिये बल देते है। लेकिन जो भी कर्म किये जायें वह सामान्य रूप से सभी के हित अनहित को ध्यान में रखकर किये जायें तो सुकर्मों की गति से जीवन के जो भी कर्म है वे आराम से हो जाते है और इस शरीर को बार बार जन्म मृत्यु के कष्टों से मुक्ति मिल जाती है.

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