Sunday, July 25, 2010

गुरु पूर्णिमा

आषाढ के महिने के समाप्त होने और श्रावण महिने के शुरु में गुरु पूर्णिमा का उत्सव मनाया जाता है। विभिन्न शास्त्रों में विभिन्न मत इस पूर्णिमा के प्रति मिलते है। गुरु के अर्थ को समझ लेने के बाद इस पूर्णिमा के प्रति बहुत कुछ समझ में आ सकता है। गुरु सांस का कारक है जो जीव को जीवन की गति देने के लिये माना जाती है। बिना सांस के मृत्यु को देखा जाता है,शरीर के जिन्दा रहने के लिये सांस का रहना जरूरी है। वायु तत्व ही शरीर को जिन्दा रखता है। अगर वायु को जीव का कारक माना जाये तो वायु 49 प्रकार की होती है। 48 दिशाओं की वायु और 1 आसमान से मिलने वाली वायु.इस वायु की गति के अनुसार जीवन चक्र को सम्पूर्ण और अर्थहीन समझा जाता है। मन शरीर की गति को देने वाला है,मन के अनुसार ही प्रगति का रास्ता मिलता है और मन के अनुसार ही अधोगति की तरफ़ जाने का रास्ता मिलता है। मन को गुरु का कारक नही माना जाता है मन को पानी के रूप में देखा जाता है,पानी के अन्दर जरा सी हलचल होने से पानी की गति बदल जाती है,लहरें पैदा होने लगती है और वही गति जीवन को आगे और पीछे ले जाने के लिये मुख्य मानी जाती है। गति बनाने के लिये वायु का होना जरूरी है,मन के संचालन के लिये वायु भी अपना स्थान रखती है,नदियों तालाबों और समुद्रों में वायु से ही लहरे बडी और छोटी बनती बिगडती है। तूफ़ान के आने पर पानी की गति तीव्र हो जाती है,बहने वाले पानी की गति के विपरीत में वायु के चलने पर लहरों की गति ऊची हो जाती है,पानी की गति के समानान्तर वायु की गति से लहरेंभी सामान्य रहती है। गुरु का अर्थ लगाने के लिये शास्त्रों में कई प्रकार के तर्क दिये गये है,जैसे गुरु ब्रह्मा है,वास्तव में गुरु को बह्म की उपाधि देना भी जरूरी है,जब बिना वायु के सभी कुछ निरर्थक है तो गुरु ब्रह्मा ही है,वायुहीन चन्द्रमा पर जीवन नही है,वायु हीन मंगल पर जीवन नही है,वायु के बिना जीवन है ही नही तो गुरु ब्रह्मा ही है। गुरु विष्णु है,वास्तव में अगर पालन कर्ता ईश्वर विष्णु है तो बिना वायु के अन्न वनस्पति जीव जन्तु के उत्पत्ति ही नही हो सकती है,प्राणवायु के बिना सभी कुछ बेकार है,तो गुरु विष्णु भी है,गुरु महेश है,यानी गुरु ही जीवों का निस्तारण कर्ता है। हवा के पूर्व दिशा के बहाव से जीवन हरा भरा हो जाता है तरलता से भर जाता है,उत्तर की हवा से जीवन फ़लों को देने वाला हो जाता है,पश्चिम दिशा की वायु से जीवन हरा भरा पौधा भी सूख जाता है,दक्षिण दिशा की वायु से कैसा भी स्वस्थ पौधा हो रोगी हो जाता है। वायु के द्वारा ही जीव की मुक्ति भी है तो गुरु महेश के रूप में भी माना जाना ठीक है। गुरु को  परब्रह्म कहा गया है,भूमण्डल पर वायु की गति है,वायु की गति के बिना पृथ्वी पर कोई गति ही नही है,तो गुरु को परब्रह्म माना जाना भी ठीक है। ज्ञान के देने वाले व्यक्ति को गुरु की उपाधि दी जाती है,ज्ञान नाम बुद्धि के द्वारा माना जाता है,बिना बुद्धि के ज्ञान को ग्रहण करना भी मुश्किल है।गुरु की मा्न्यता सर्व प्रथम माता के हक मे है,माता ने जन्म दिया,तो वह ब्रह्मा बनी,माता ने शरीर का पालन किया तो वह विष्णु बनी,शिव की उपाधि माता को जब मिली जब व्यक्ति समझदार हो गया,तो पहली गुरु माता है,यह अटल सत्य है। व्यक्ति को समर्थ बनाने के लिये व्यक्ति को अपनी औकात में भेजने के लिये पिता को माना जाता है,औकात को आत्मा का नाम दिया गया है,पिता के द्वारा आत्मा मिली,शरीर के अन्दर आत्मा के रूप में पिता की स्थिति है। फ़िर उसके बाद संसार ज्ञान के लिये बोलने चालने के लिये अपने भावों को प्रदर्शन करने के लिये मिलते है,अक्षर ज्ञान देने वाले गुरु,जीवन को जीने के लिये समाज के अनुसार चलने के लिये पथ प्रदर्शक गुरु,इन गुरुओं की व्यवस्था समाज के बदलाव के साथ बदलती जाती है। ज्ञान जरूरी नही है कि वह व्यक्ति के द्वारा ही मिले,ज्ञान को प्राप्त करने के लिये व्यक्ति के द्वारा लिखी गयी किताब से भी मिलता है,ज्ञान किसी व्यक्ति के द्वारा बनाये गये कम्पयूटर के सोफ़्टवेयर से भी मिलता है। गुरु का ज्ञान रास्ता चलते भी मिलता है,गुरु रास्ता बताने वाले के रूप में सडक का साइन बोर्ड भी है,लेकिन महानता उस साइन बोर्ड को बनाने वाले को दी जाती है। गुरु को पीत वस्त्र धारी के रूप में मानना सतयुग की बात थी,आज के जमाने में गुरु को वेश भूषा के अनुसार नही उसके ज्ञान के अनुसार मान्यता दी जाती है,कई हर बात में पूर्ण नही है,यह भी सत्य है,कोई दाल बनाना जानता है तो कोई भात बनाना जानता है,दाल बनाने वाला दाल का गुरु है और भात बनाने वाला भात का गुरु है,यही अपूर्णता को पूर्णता की तरफ़ ले जाने के लिये गुरु को बनाया गया है,सर्वज्ञानी बनने के लिये सैकडों नही लाखों साल भी कम लगेगे,आज जो वस्तु सामने है वह कल पुरानी हो जायेगी,कल जो वस्तु निर्मित होगी वह परसों पुरानी हो जायेगी,जब तक आने वाली नए वस्तु का पहले से पता नही चल पाता है पूर्णता की कमी ही मानी जा सकती है। जो पूर्ण है वही गुरु है,कथा भागवत और पुराणों का जानकार पूर्णता को नही समझा जा सकता है,कल के जीवन को जीने के लिये जो रास्ता दे वही पूर्णता को समझने वाला और ज्ञानी कहा जा सकता है। पुरानी मान्यताओं के लिये लडना और आज की मान्यताओं को नजर अंदाज करने का मतलब भी जो सामने ज्ञान का रूप है उसे दुत्कारना। जनरेशन गेप के अर्थ को समझना भी आज के गुरु का कर्तव्य है,बिना जनरेशन गेप को समझे आज के ज्ञान को समझना बेकार की बात मानी जा सकती है। अपने अपने धर्म के ग्रंथ केवल सामाजिकता से जुडने के लिये माने जा सकते है,किसी को कोई सामाजिकता नही अच्छी लगती है तो वह दूसरी सामाजिकता में जीने के लिये अपने को तैयार कर लेता है,अगर किसी तरह से उसे सामाजिकता के अन्दर जबरदस्ती लाने की कोशिश भी की जाये तो वह बिना मन के चलने वाली बात कही जायेगी,बिना चमत्कार किये कई नमस्कार नही करता है,चमत्कार इस भौतिक जगत के भीतर ही दिखाने के लिये माना जा सकता है,आध्यात्मिक जगत का चमत्कार दिखाने के लिये आद्यात्मिक जगत में ही जाना पडेगा,भौतिक वस्तु को देखकर झुठलाया नही जा सकता है,लेकिन नजर का खेल दिखाकर लोग भौतिक वस्तु को भी बना या बिगाड देते है,जादूगर बनना गुरु बनना नही माना जा सकता है,जन कल्याण को देखना और जनकल्याण को करना ही गुरुत्व की श्रेणी में आता है। अपने अपने पंथ का निर्माण विभिन्न प्रकार के मतों को अलग अलग बनाना ही माना जायेगा। जिसे सात्विकता पसंद है वह देवी देवताओ को मानने वाला होगा और जिसे तामसी चीजों से प्रेम है वह भूत प्रेत आदि को मानने के लिये अपने को अलग अलग करेगा,जो जीव के अन्दर भेद को नही मानता है वह सभी को नमस्कार करेगा,और जो जीव के अन्दर भेद को समझता है वह बडे और छोटे का भेद समझ कर नमस्कार करेगा। पुराने कारणों को प्रर्दर्शित करने और आज की मान्यता को नही मानने पर ही गुरु गुड और चेला शक्कर बन जाते है।

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