अन्जान स्थान पर जाते समय रास्ता पूंछना जरूरी होता है,जाने वाले स्थान पर पहुंचने के लिये हम अपने अनुभव के अनुसार साधनो का प्रयोग करते है,जितना अच्छा अनुभव होता है उतनी जल्दी हम अपने गन्तव्य पर पहुंचते है,जितनी अज्ञानता होती है उतनी ही देर हमे गन्तव्य पर पहुंचने मे लगती है। अन्जान रास्ते पर जाते समय आशंकाये मन मे रहती है,कौन सा रास्ता होगा कौन सी मोड आयेगी कौन कौन से खतरे के कारण रास्ते मे आ सकते है,सुरक्षित पहुंचने के लिये कौन सा उपाय सही काम करेगा आदि बाते सामने आती है। गाइड का काम करने वाले इसी प्रकार की सलाह से अपने जीवन यापन को करते है। लेकिन जरूरी नही है कि हमे हमारे जाने वाले रास्ते के लिये गाइड मिल ही जाये,हमे उपयोग करने वाले रास्ते के लिये स्थानीय मदद भी लेनी पडती है। स्थानीय मदद मे उस स्थान के बारे मे सभी कुछ जानने वाले लोगो की मदद ली जाती है। जैसे किसी विशेष स्थान पर जाते समय चौराहे के पान वाले से पूंछा जाता है,वह जैसा भी उत्तर देता है उसी के निर्देशानुसार रास्ता प्रयोग किया जाता है,जितने समय तक रास्ता तय किया जाता है पान वाले की बातो पर ध्यान रखकर चलना पडता है,ध्यान केवल इसलिये रखना पडता है क्योंकि हमे गन्तव्य पर पहुंचना होता है और बताने वाला एक पान वाला होता है,पान वाले से हमारी कोई जान पहिचान नही होती है,फ़िर भी हम उसकी बात का विश्वास करने के बाद चलते है।गन्तव्य पर अगर हम सही सलामत पान वाले की राय से पहुंच जाते है तो हमारे मन मे उस पान वाले के प्रति विश्वास और अधिक गहरा हो जाता है,और हम किसी प्रकार से गन्तव्य पर नही पहु़ंच पाते है तो उस पान वाले के प्रति एक दुर्भावना मन के अन्दर पैदा हो जाती है उसने गलत रास्ता बता दिया था इसलिये समय पर गन्तव्य पर नही पहुंच पाये। सूक्ष्म रूप से अगर इस बात को देखा जाये तो भले ही हमने जब गन्तव्य स्थान का रास्ता पूंछा था उस समय कोई पूंछने मे गल्ती की हो लेकिन दोष उस पान वाले पर चला गया कि रास्ता उसने गलत बताया था। जब दिमाग मे गहराई से सोचा तो पता लगा कि हमने ही उस पान वाले से गलत रूप मे पूंछा था जिससे उसने बताई जाने वाली रास्ता गलत बताई थी। पान वाले ने राय देते समय कोई राय देने की कीमत नही बताई थी,हमने राय लेने के लिये कोई कीमत नही चुकाई थी,अगर पान वाला दोषी है तो उसे दण्ड भी नही मिलना चाहिये और हमने अगर कीमत नही चुकाई है तो हमे अपने मन से पान वाले के दोषी होने का ख्याल नही रखना चाहिये प्रकृति यही कहती है। हमारे जीवन मे दूसरो की दया का होना जरूरी है हर दया की कीमत चुकाना हमारे वश की बात भी नही है,कितनी ही कोशिश की जाये कि हम किसी भी व्यक्ति की दया नही ले,लेकिन बिना दया के लिये हमारा जीवन रुक जायेगा,हमे जहां पहुंचना है वहां हम पहुंच ही नही पायेंगे चाहे वह शरीर के विकास से जुडा रूप हो या ज्ञान की सीमा मे आने वाला क्षेत्र हो,जो भी दया हमे मिलती है वह प्रकृति की दी जाने वाली दया होती है,जैसे हमे धूप से गर्मी रोशनी हवा से सांस लेना पानी से प्यास बुझाना प्रकृति की दी गयी वस्तुओ से अपनी भूख को समाप्त करना आदि।
प्रकृति देती है दया
प्रकृति का नियम है कि वह अपने द्वारा पैदा करने वाले जीव को अपनी दया देती है। उस दया को हम ससम्मान ग्रहण भी करते है लेकिन कुछ मायनो मे हम उसी दया को अधिक मूल्य देते है जो दया हमने खरीद कर प्राप्त की हो,यह हमारे प्रयास और हमारी मेहनत से मिलने वाली दया का रूप होता है जैसे गर्म पानी को ठंडा करने के लिये हमने मशीन को खरीदा और पानी को ठंडा करने के बाद उसे प्रयोग मे लिया तो वह पानी रूप की दया तो प्रकृति की थी लेकिन उस पानी की तासीर बदलने की क्रिया को हमने अपनी क्रिया के अनुरूप बना लिया और हमने घमंड कर लिया कि पानी को हमने ठंडा किया है। हम पानी को कीमत लगाकर बेचना शुरु कर देंगे,उसी पानी को साफ़ करने के बाद उसे एक रूप देकर उसका मूल्य प्राप्त करने लगेंगे और प्रकृति की दी जाने वाली दया को हम बेच कर अपने जीवन को आगे बढाने की कोशिश करने लगेंगे। लेकिन सोचना हमे यह चाहिये कि पानी अगर प्रकृति ने नही दिया होता तो हम पानी को ठंडा भी नही कर सकते थे पानी को साफ़ भी नही कर सकते थे,पानी पर हम अधिकार भी नही जमा सकते थे। यह बात दया को खरीदने बेचने की क्रिया के अन्दर शामिल कर लिया गया और उसे अगर हमारे पास अधिक पानी है तो हमे पानी का मालिक बना दिया गया और उस पानी को अगर कोई दूसरा प्रयोग मे लाता है तो उसकी कीमत वह चुकाकर या हमारी दया के आधीन होकर वह पानी को प्रयोग मे लाता है वहां पर हम और वह प्रयोग करने वाला यह भूल जाता है कि पानी तो प्रकृति ने दिया है। फ़िर एक दूसरे की दया और कीमत का प्रयोग करना ही बेकार की बात है।
राय लेने की कीमत और उसका महत्व
माँ बच्चे को राय बिना कीमत के देती है पिता अपने पुत्र को बिना किसी कीमत के पालन पोषण करता है,परिवार के लोग भाई बहिन आदि सभी बिना कीमत के आगे बढने की राय को देते है। लेकिन जैसे ही शिक्षा के क्षेत्र मे प्रवेश किया जाता है वैसे ही अजनबी लोगो की श्रेणी शुरु हो जाती है और मिलने वाली सांसारिक शिक्षा के लिये फ़ीस के रूप मे कीमत चुकाना जरूरी हो जाता है। इस रूप मे जो कीमत दी जाती है वह दी जाने वाली शिक्षा की श्रेणी के अनुसार होती है,भले ही विद्यार्थी मे ग्रहण करने की शक्ति नही हो लेकिन उसे कीमत तो चुकानी पडती है,कारण कीमत चुकाना कानूनी अधिकार मे आजाता है और कीमत नही चुकाई गयी तो शिक्षा की श्रेणी मे आगे नही बढने दिया जायेगा। यहां पर दया का रूप समाप्त हो जाता है उस रूप के समाप्त होने का कारण भी है कि हम अपने अनुसार यह व्यक्त करना चाहते है कि अजनबी जो शिक्षा को दे रहा है वह उस शिक्षा की बदौलत अपने जीवन के निर्वाह को कर रहा है। लेकिन हम जो उस शिक्षा से प्राप्त कर रहे है या ग्रहण कर रहे है उसके अन्दर कीमत लेकर शिक्षा उचित रूप मे नही देने के कारण शिक्षा को देने वाला दोषी नही माना जाता है वहां पर दोष हमे दिया जाता है और परीक्षा के रूप मे हमे पास या फ़ेल कर दिया जाता है। अगर कानून यह कहता है कि अजनबी व्यक्ति से शिक्षा लेने के लिये कीमत चुकानी पडेगी तो कानून को यह भी कहना चाहिये शिक्षा के लिये जो कीमत ले रहा है उसे उसी श्रेणी की शिक्षा उसी कीमत मे प्रदान भी करनी चाहिये ? कानून यहां पर चुप हो जाता है इसका कारण है कि कानून हमे दोषी बना देता है कि हमारे अन्दर जितनी शिक्षा दी जाती है उसे ग्रहण करने की शक्ति नही है ? जब ग्रहण करने की शक्ति में समानता नही है तो कानून को भी समान भाव से नही देखना चाहिये ? अथवा कानून मे भी समानता का रूप नही होना चाहिये ? कानून को भी राय देने के मामले मे एक ही प्रकार का कारण प्रयोग मे नही लाना चाहिये। यह नही हो सकता है अगर एक व्यक्ति के लिये एक कानून बनेगा तो संसार मे अरबो खरबो कानून बन जायेंगे आदमी का कानून से चलना दूभर हो जायेगा? जब माँ अपने बच्चे को मुफ़्त मे पालन पोषण करती है पिता बच्चे को मुफ़्त मे धन आदि की सहायता देकर समर्थ होने तक अपनी शक्ति को व्यय करता है,पत्नी मुफ़्त मे बच्चे पैदा करने के बाद परिवार को आगे बढाने के लिये आगे आती है तो इसकी कीमत भी कानून के द्वारा चुकानी जरूरी होनी चाहिये ? ऐसा नही होता है क्योंकि यह प्रकृति के कानून के अन्दर आजाता है और यह सब दया पर निर्भर होता है,यह दया मर्सी आफ़ गाड कहलाती है,इस मर्सी को प्रयोग करने के लिये हम सब स्वतंत्र है,भले ही बच्चे को पालने पोषने के बाद बच्चा माता पिता को छोड कर चला जाये,भले ही बच्चे को पैदा करने के बाद माता पिता उसे कचरे के डिब्बे मे डाल आयें,यहां कानून काम करने लगेगा।
राय मशविरा और कानून का दायरा
रास्ता बताने के लिये पान की दुकान वाला जिम्मेदार नही है वह रास्ता बताता है तो उसकी मर्जी है नही बताता है तो उसकी मर्जी है,उसे कानून परेशान नही करेगा। भिखारी को भोजन देना हमारी मर्जी पर निर्भर है हम भिखारी को भोजन दे भी सकते है और नही भी दे सकते है यहां कानून हमे भिखारी को भोजन देने के लिये परेशान नही करेगा। जब हम मुशीबत मे आजायें तब हम जो राय लेंगे वह राय कीमत मे बदल जायेगी। शरीर की तकलीफ़ की राय लेने के लिये डाक्टर को कीमत चुकानी पडेगी,भले ही डाक्टर की राय गलत हो जाये,डाक्टर को कीमत चुकाने के बाद भी डाक्टर को कोई दंड नही झेलना होगा,कारण वह अपनी बचाव की प्रक्रिया मे उसी कारण को पेश करेगा जो कारण सभी तरह से मान्य हो,मेडिकल कानून से जुडा हो। डाक्टर की राय कीमती इसलिये भी हो जायेगी क्योंकि उसने डाक्टरी की पढाई की है,उसे डिग्री देने के वक्त यह मान लिया जाता है कि उसे सभी प्रकार का सम्बन्धित क्षेत्र मे ज्ञान प्राप्त हो चुका है,भले ही शाम को डाक्टर ने अधिक शराब पी ली हो और वह सुबह को उसने अपने बन्द दिमाग से गलत राय दे दी हो,डिग्री धारक होने से कानून उसके पिछले कारको नही देखकर और दिमाग का मुआयना नही करवा पायेगा। उसने जो राय दी है वह ही मान्य होगी भले ही मरीज का ऊपर जाना निश्चित हो चुका हो ? सभी बोझ दवा कम्पनी पर डाल दिया जायेगा मरीज के भोजन और रहन सहन पर डाल दिया जायेगा,दूध की जगह पर छाछ पीकर मरजाना बता दिया जायेगा आदि। एक साधारण आदमी अगर अपने जीवन मे उचित मात्रा मे उसी शिक्षा को प्राप्त करने के बाद मरीज को बचाने के लिये आगे आयेगा तो उसे कानून यह कहकर काम नही करने देगा कि उसके पास डिग्री नही है,वह राय देने के काबिल नही है। पान वाले को नही डिग्री नही दी गयी है तो वह रास्ता बता सकता है,दूध वाले को डिग्री नही दी गयी है वह दूध को पानी मे या पानी को दूध मे मिलाकर बेच सकता है बूट पालिस करने वाले को डिग्री नही दी गयी है,सडक पर कचरा बीनने वाले को डिग्री नही दी गयी है रिक्सा चलाने वाले को वजन ढोने वाले को बर्तन साफ़ करने वाले को व्यापार करने वाले को फ़ैक्टरी लगाने वाले को किसान को मजदूर को मिस्त्री को पत्थर तोडने वाले को मन्दिर के पुजारी को पूजा करने वाले को किसी को भी डिग्री नही दी गयी है यह सब बिना डिग्री के काम कर सकते है ?
प्रकृति देती है दया
प्रकृति का नियम है कि वह अपने द्वारा पैदा करने वाले जीव को अपनी दया देती है। उस दया को हम ससम्मान ग्रहण भी करते है लेकिन कुछ मायनो मे हम उसी दया को अधिक मूल्य देते है जो दया हमने खरीद कर प्राप्त की हो,यह हमारे प्रयास और हमारी मेहनत से मिलने वाली दया का रूप होता है जैसे गर्म पानी को ठंडा करने के लिये हमने मशीन को खरीदा और पानी को ठंडा करने के बाद उसे प्रयोग मे लिया तो वह पानी रूप की दया तो प्रकृति की थी लेकिन उस पानी की तासीर बदलने की क्रिया को हमने अपनी क्रिया के अनुरूप बना लिया और हमने घमंड कर लिया कि पानी को हमने ठंडा किया है। हम पानी को कीमत लगाकर बेचना शुरु कर देंगे,उसी पानी को साफ़ करने के बाद उसे एक रूप देकर उसका मूल्य प्राप्त करने लगेंगे और प्रकृति की दी जाने वाली दया को हम बेच कर अपने जीवन को आगे बढाने की कोशिश करने लगेंगे। लेकिन सोचना हमे यह चाहिये कि पानी अगर प्रकृति ने नही दिया होता तो हम पानी को ठंडा भी नही कर सकते थे पानी को साफ़ भी नही कर सकते थे,पानी पर हम अधिकार भी नही जमा सकते थे। यह बात दया को खरीदने बेचने की क्रिया के अन्दर शामिल कर लिया गया और उसे अगर हमारे पास अधिक पानी है तो हमे पानी का मालिक बना दिया गया और उस पानी को अगर कोई दूसरा प्रयोग मे लाता है तो उसकी कीमत वह चुकाकर या हमारी दया के आधीन होकर वह पानी को प्रयोग मे लाता है वहां पर हम और वह प्रयोग करने वाला यह भूल जाता है कि पानी तो प्रकृति ने दिया है। फ़िर एक दूसरे की दया और कीमत का प्रयोग करना ही बेकार की बात है।
राय लेने की कीमत और उसका महत्व
माँ बच्चे को राय बिना कीमत के देती है पिता अपने पुत्र को बिना किसी कीमत के पालन पोषण करता है,परिवार के लोग भाई बहिन आदि सभी बिना कीमत के आगे बढने की राय को देते है। लेकिन जैसे ही शिक्षा के क्षेत्र मे प्रवेश किया जाता है वैसे ही अजनबी लोगो की श्रेणी शुरु हो जाती है और मिलने वाली सांसारिक शिक्षा के लिये फ़ीस के रूप मे कीमत चुकाना जरूरी हो जाता है। इस रूप मे जो कीमत दी जाती है वह दी जाने वाली शिक्षा की श्रेणी के अनुसार होती है,भले ही विद्यार्थी मे ग्रहण करने की शक्ति नही हो लेकिन उसे कीमत तो चुकानी पडती है,कारण कीमत चुकाना कानूनी अधिकार मे आजाता है और कीमत नही चुकाई गयी तो शिक्षा की श्रेणी मे आगे नही बढने दिया जायेगा। यहां पर दया का रूप समाप्त हो जाता है उस रूप के समाप्त होने का कारण भी है कि हम अपने अनुसार यह व्यक्त करना चाहते है कि अजनबी जो शिक्षा को दे रहा है वह उस शिक्षा की बदौलत अपने जीवन के निर्वाह को कर रहा है। लेकिन हम जो उस शिक्षा से प्राप्त कर रहे है या ग्रहण कर रहे है उसके अन्दर कीमत लेकर शिक्षा उचित रूप मे नही देने के कारण शिक्षा को देने वाला दोषी नही माना जाता है वहां पर दोष हमे दिया जाता है और परीक्षा के रूप मे हमे पास या फ़ेल कर दिया जाता है। अगर कानून यह कहता है कि अजनबी व्यक्ति से शिक्षा लेने के लिये कीमत चुकानी पडेगी तो कानून को यह भी कहना चाहिये शिक्षा के लिये जो कीमत ले रहा है उसे उसी श्रेणी की शिक्षा उसी कीमत मे प्रदान भी करनी चाहिये ? कानून यहां पर चुप हो जाता है इसका कारण है कि कानून हमे दोषी बना देता है कि हमारे अन्दर जितनी शिक्षा दी जाती है उसे ग्रहण करने की शक्ति नही है ? जब ग्रहण करने की शक्ति में समानता नही है तो कानून को भी समान भाव से नही देखना चाहिये ? अथवा कानून मे भी समानता का रूप नही होना चाहिये ? कानून को भी राय देने के मामले मे एक ही प्रकार का कारण प्रयोग मे नही लाना चाहिये। यह नही हो सकता है अगर एक व्यक्ति के लिये एक कानून बनेगा तो संसार मे अरबो खरबो कानून बन जायेंगे आदमी का कानून से चलना दूभर हो जायेगा? जब माँ अपने बच्चे को मुफ़्त मे पालन पोषण करती है पिता बच्चे को मुफ़्त मे धन आदि की सहायता देकर समर्थ होने तक अपनी शक्ति को व्यय करता है,पत्नी मुफ़्त मे बच्चे पैदा करने के बाद परिवार को आगे बढाने के लिये आगे आती है तो इसकी कीमत भी कानून के द्वारा चुकानी जरूरी होनी चाहिये ? ऐसा नही होता है क्योंकि यह प्रकृति के कानून के अन्दर आजाता है और यह सब दया पर निर्भर होता है,यह दया मर्सी आफ़ गाड कहलाती है,इस मर्सी को प्रयोग करने के लिये हम सब स्वतंत्र है,भले ही बच्चे को पालने पोषने के बाद बच्चा माता पिता को छोड कर चला जाये,भले ही बच्चे को पैदा करने के बाद माता पिता उसे कचरे के डिब्बे मे डाल आयें,यहां कानून काम करने लगेगा।
राय मशविरा और कानून का दायरा
रास्ता बताने के लिये पान की दुकान वाला जिम्मेदार नही है वह रास्ता बताता है तो उसकी मर्जी है नही बताता है तो उसकी मर्जी है,उसे कानून परेशान नही करेगा। भिखारी को भोजन देना हमारी मर्जी पर निर्भर है हम भिखारी को भोजन दे भी सकते है और नही भी दे सकते है यहां कानून हमे भिखारी को भोजन देने के लिये परेशान नही करेगा। जब हम मुशीबत मे आजायें तब हम जो राय लेंगे वह राय कीमत मे बदल जायेगी। शरीर की तकलीफ़ की राय लेने के लिये डाक्टर को कीमत चुकानी पडेगी,भले ही डाक्टर की राय गलत हो जाये,डाक्टर को कीमत चुकाने के बाद भी डाक्टर को कोई दंड नही झेलना होगा,कारण वह अपनी बचाव की प्रक्रिया मे उसी कारण को पेश करेगा जो कारण सभी तरह से मान्य हो,मेडिकल कानून से जुडा हो। डाक्टर की राय कीमती इसलिये भी हो जायेगी क्योंकि उसने डाक्टरी की पढाई की है,उसे डिग्री देने के वक्त यह मान लिया जाता है कि उसे सभी प्रकार का सम्बन्धित क्षेत्र मे ज्ञान प्राप्त हो चुका है,भले ही शाम को डाक्टर ने अधिक शराब पी ली हो और वह सुबह को उसने अपने बन्द दिमाग से गलत राय दे दी हो,डिग्री धारक होने से कानून उसके पिछले कारको नही देखकर और दिमाग का मुआयना नही करवा पायेगा। उसने जो राय दी है वह ही मान्य होगी भले ही मरीज का ऊपर जाना निश्चित हो चुका हो ? सभी बोझ दवा कम्पनी पर डाल दिया जायेगा मरीज के भोजन और रहन सहन पर डाल दिया जायेगा,दूध की जगह पर छाछ पीकर मरजाना बता दिया जायेगा आदि। एक साधारण आदमी अगर अपने जीवन मे उचित मात्रा मे उसी शिक्षा को प्राप्त करने के बाद मरीज को बचाने के लिये आगे आयेगा तो उसे कानून यह कहकर काम नही करने देगा कि उसके पास डिग्री नही है,वह राय देने के काबिल नही है। पान वाले को नही डिग्री नही दी गयी है तो वह रास्ता बता सकता है,दूध वाले को डिग्री नही दी गयी है वह दूध को पानी मे या पानी को दूध मे मिलाकर बेच सकता है बूट पालिस करने वाले को डिग्री नही दी गयी है,सडक पर कचरा बीनने वाले को डिग्री नही दी गयी है रिक्सा चलाने वाले को वजन ढोने वाले को बर्तन साफ़ करने वाले को व्यापार करने वाले को फ़ैक्टरी लगाने वाले को किसान को मजदूर को मिस्त्री को पत्थर तोडने वाले को मन्दिर के पुजारी को पूजा करने वाले को किसी को भी डिग्री नही दी गयी है यह सब बिना डिग्री के काम कर सकते है ?
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