वालमीकि रामायण के उतर काण्ड मे सत्रहवे सर्ग मे सीताजी के बारे मे विवरण मिलता है,इस विवरण मे बताया गया है कि सीताजी पूर्वजन्म मे वेदवती नाम की कन्या थी ।
कुशध्वजो नाम पिता ब्रह्मर्षिरमितप्रभ:,बृहस्पतिसुत: श्रीमान बुद्ध्या तुल्यो बृहस्पते: ॥वा.रा.उ.का.॥१७॥श्लोक ८॥
तस्याहं कुर्वतो नित्यं विदाभ्यासं महात्मन:,सम्भूता वांगमयी कन्या नाम्ना वेदवती स्मृता ॥
रावण के हिमालय विचरण के दौरान उन्होने एक कन्या को तपस्या करते हुये देखा और उससे उसके बारे में पूँछा,कन्या ने जबाब दिया कि उसके पिता कुशध्वज थे जो बृहस्पति के पुत्र थे और बुद्धि भी उन्ही के समान थी,प्रतिदिन वेदाभ्यास करने वाले उन महात्मा पिता से वांगमई कन्या के रूप मे मेरा प्रादुर्भाव हुआ था,मेरा नाम वेदवती है।
आगे लिखा है कि जब मै बढी हुये तव देवता गन्धर्व यक्ष राक्षस और नाग जाति के लोग भी पिताजी के पास जा जाकर उनसे मुझे मांगल और विवाह के लिये प्रार्थना करने लगे. हे महाबाहु ! राक्षसेश्वर पितानी जे उनके हाथ से मुझे नही सौंपा इसका क्या कारण था मै बता रही हूँ,पिताजी की इच्छा थी कि तीनो लोगो क एस्वामी देवेश्वर भगवान विष्णु मेरे दामाद हो,इसलिये वे दूसरे किसी के हाथ मे मुझे नही देना चाहते थे उनके इस अभिप्राय को सुनकर बलाभिमानी दैत्यराज शम्भु उनपर कुपित हो उठा और और उस पापी ने रात मे सोते समय मेरे पिताजी की हत्या कर डाली। इससे मेरी महाभागा माता को बडा दुख हुआ और वे पिताजी के शव को ह्रदय से लगाकर चिता की आग मे प्रविष्ट हो गयी. तबसे मैने प्रतिज्ञा कर ली है कि भगवान नारायण के प्रति पिताजी का जो मनोरथ था उसे मै सफ़ल करूंगी.इसलिये मै उन्ही को अपने ह्रदय से चाहती हूँ,यही प्रतिज्ञा करके मै यह महान तप कर रही हूँ.
आगे लिखा है कि रावण को उस अनुपम सुन्दरी वेदवती के इन वाक्यो को सुनकर देवताओं के प्रति ईर्ष्या की भावना से उसे जबरन प्राप्त करने की इच्छा हुयी और उसने वेदवती से कहा-
त्वं सर्वगुणसम्पन्ना नार्ह्से वक्तुमीद्रशम,त्रैलोक्य सुन्दरी भीरु यौवनं तेऽतिवर्तते ॥२२॥
अहं लंकापति भद्रे दशग्रीव इति श्रुत:,तस्य मे भार्या त्वं भुंगक्ष्व भोगान यथा सुखम ॥२३॥
अर्थात- तुम तो सर्वगुण सम्पन्न एवं त्रिलोकी की अद्वितीय सुन्दरी हो तुमेह ऐसी बात नही कहनी चाहिये,भीरू तुम्हारी जवानी बीती जा रही है,भद्रे ! मैं लंका का राजा हूँ,मेरा नाम दशग्रीव है तुम मेरी भार्या हो जाओ और सुखपूर्वक उत्तम भोग भोगो.
वेदवती ने जबाब दिया-
त्रैलोक्याधिपतिं विष्णुं सर्वलोक नमस्कृतम,त्वदृते राक्षसेन्द्राय: कोऽवमन्येत बुद्धिमान ॥२६-२७॥
राक्षसराज ! भगवान विष्णु तीनो लोगो के अधिपति है सारा संसार उनके चरंओमे मस्तक झुकाता है तुम्हारे सिवा दूसरा कौन पुरुष होगा जो बुद्धिमान होकर भी उसकी अवहेलना करेगा.
वेदवती के ऐसे वाक्य सुनकर रावण ने वेदवती के बालों को पकड वश मे करने का साहस किया लेकिन वेदवती ने अपने बालो जहां से रावण ने पकडा था काट दिये और क्रोध मे आकर कहा कि अगर तुम्हे श्राप देती हूँ तो मेरी की गयी तपस्या क्षीण हो जायेगी,स्त्री शक्ति किसी भी पापाचारी की हत्या करने मे असमर्थ है,अगर वह किसी पापाचारी की हत्या कर भी देती है तो वह सात जन्म तक दोषी मानी जाती है.
वेदवती ने प्रण किया कि वह अगले जन्म मे अयोनिजा अर्थात बिना योनि के जीव से अपनी उत्त्पत्ति को प्राप्त करेगी और किसी धर्म पिता की सन्तान बनकर अपने वर के रूप मे भगवान विष्णु को प्राप्त करेगी.ऐसा कहकर वेदवती ने अपने शरीर को अग्नि मे समर्पित कर दिया.
पुनरेव समुदभूता पद्मे पद्यसमप्रभा,तस्पादपि पुन: प्राप्ता पूर्ववत तेन राक्षसा ॥
कन्या कमलगर्भाभां प्रगृह्य स्वगृहं ययौ,प्रगृह्य रावणस्त्वेतां दर्शयामास मन्त्रिणे ॥
लक्ष्णज्ञो निरीक्षैव रावण चैवमब्रवीत,गृहस्थैषा हि सुश्रोणी त्वदवधायैव द्रश्यते ॥ ३५-३६-३७॥
तदनन्तर वह दूसरे जन्म मे कमल से प्रकट हुयी उसकी कान्ति कमल के समाह ही सुन्दर थी,रावण ने पहले की भांति फ़िर वहां से उस कन्या को प्राप्त कर लिया.कमल के भीतरी भाग के समान सुन्दर कान्तिवाली उस कन्या को लेकर रावण अपने घर गया वहां उसने मन्त्री को वह कन्या दिखलायी,जिसे वह पुत्री के रूप मे पालना चाहता था.मंत्री बालक बालिकाओं के सामुद्रिक लक्षण को जानने वाला था,उसने कहा कि अगर यह कन्या इस घर मे रही तो वह रावण के वध का कारण बन जायेगी,जैसे यह पूर्व जन्म मे अपने पिता के वध का कारण बनी थी.
यह सुनकर रावण ने कुछ समय उपरान्त उस कन्या को समुद्र मे फ़िंकवा दिया.तत्पश्चात वह समुद्र के नीचे भूमि को प्राप्त हुयी और राजा जनक के यज्ञ मण्डप के मध्य भूभाग मे जा पहुंची,जहां राजा जनक के उस भूभाग को अकाल के समय जोते जाने पर वह सती साध्वी कन्या फ़िर प्रकट हो गयी.
वही वेदवती कन्या महाराज जनक की धर्म पुत्री सीताजी हुयी और बाद मे श्रीराम जो विष्णु रूप मे प्रकट हुये थे उनकी पत्नी बनी.
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