पक्षान्त की दो तिथिया होती है एक पूर्णिमा तथा दूसरी अमावस्या। पूर्णिमा के बाद कृष्ण पक्ष की शुरुआत होती है और अमावस्या के बाद शुक्ल पक्ष की शुरुआत होती है।सुख और दुख रूपी दो पक्ष चन्द्रमा की कलाओं को घटाने और बढाने वाले होते है। अमावस्या से लेकर अष्टमी तक और पूर्णिमा से लेकर अष्टमी तक चन्द्रमा को क्षीण चन्द्रमा की उपाधि दी जाती है। पूर्णिमा से लेकर अष्टमी तक सुखो का घटना और अमावस्या से लेकर अष्टमी तक धीरे धीरे सुखों का बढना माना जाता है।या तो घटते हुये सुख परेशान करते है या बढते हुये दुख परेशान करते है। पूर्णिमा के व्रत आदि से घटते हुये सुखों में विराम लगाया जा सकता है और अमावस्या के व्रत से बढते हुये सुखो की पूर्ति को और भी बढाया जा सकता है। अमावस्या के देवताओं में भौतिक देवता माने जाते है और पूर्णिमा के व्रत के आध्यात्मिक देवता बताये जाते है। संसार सुख के लिये अमावस्या के व्रत को अधिक महत्व दिया जाता है और किसी भी रूप मे पूर्वजों की महत्ता को अधिक बताया जाता है।
चैत्र और बैसाख की अमावस्या को पितृ पूजा को शुरु किया जा सकता है और उनकी पूजा श्रद्धा से अपने अपने इष्ट के रूप मे स्थापित किया जाता है। ज्येष्ठ मास की अमावस्या को ब्रह्म-सावित्री व्रत का किया जाना बताया गया है इसके अन्दर जो भी पूजा पाठ आदि किये जाते है वह सभी ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा के अनुसार ही किये जाते है। आषाढ श्रावण और भाद्रपद की अमावस्या मे पितृ श्राद्ध दान हवन आदि पितरो के लिये की जाती है। इन अमावस्या मे किये जाने वाले व्रत और दान पुंण्य के कार्य अक्षय माने जाते है। भाद्रपद की अमावस्या को तिल के खेत मे उत्पन्न कुशो को ऊँ हुं फ़ट मंत्र को जाप करते हुये उखाडा जाता है,जिन्हे पूरे वर्ष धार्मिक कार्यों के लिये प्रयोग मे लिये जाता है,अश्विन मास की अमावस्या को गया जी मे या गंगा जी मे पितृ श्राद्ध तर्पण आदि किया जाता है,यह पितरों को मोक्ष देने वाला और अचानक जीवन मे घटने वाली घटनाओं को रोकने वाला होता है। कार्तिक की अमावस्या को पितरों के प्रति तथा आने वाली पीढी को बुद्धिमान बनाने के लिये दीप दान किया जाता है यह दीप दान देव मन्दिर नदी बाग तालाब पीपल के पेड के नीचे गौशाला और बाजार आदि मे किया जाता है। दीपों में तिल के तेल का ही प्रयोग करना उत्तम रहता है,अलावा तेल के प्रयोत से वातावरण मे उत्पन्न कार्बन वायु मंडल में उस शक्ति को नही उत्पन्न कर पाते है जो बुद्धि के लिये उत्तम मानी जाती है। बिजली की रोशनी या आतिशबाजी से उत्पन्न प्रकाश से मन के अन्दर भटकाव पैदा होता है। देव साधना में या पितरो के प्रति की जाने वाली साधना से ध्यान का भटकाव पैदा होता है। साधन विद्या और धन में बराबर का हिसाब लगाने के लिये इस अमावस्या का प्रयोग किया जाता है। यानी जितने साधन होते है और उतनी ही साधनो को प्रयोग करने की विद्या और उतनी ही पूंजी जिससे साधनो को चलाया जा सकता है का मीजान इसी अमावस्या को लगाया जाता है। साधनो की सुरक्षा और उनकी लम्बी उम्र के लिये गणेश जी की प्रतिमा या तस्वीर की पूजा की जाती है,विद्या को पूरा रखने के लिये और वक्त पर विद्या क काम आने के लिये माता सरस्वती की पूजा तस्वीर या मूर्ति से की जाती है,धन का पूरा रहना और वक्त पर साधनो के लिये विद्या के द्वारा प्रयोग किये जाने के लिये धन का सहायक होने के लिये लक्ष्मी की मूर्ति और तस्वीर आदि का प्रयोग किया जाता है। इसी क्रम को त्रिकोण के रूप में सोलह कलाओं से युक्त विद्या साधन और धन के लिये उल्टे सीधे क्रम में बनाया जाता है और इन्ही सोलह त्रिकोणो के महत्व को श्रीयंत्र के रूप मे भी बनाया जाता है। इस अमावस्या को बडे त्यौहार के रूप मे मनाया जाता है,तथा इस त्यौहार पर वणिक वर्ग के ध्यान भंग के लिये अक्सर लोग बडी आवाज के रूप में पटाखों को फ़ोडा करते है जिससे जो लोग अपने इन तीनो साधनों का बुद्धि से प्रयोग नही कर पायें,हूण वंश के समुदाय ने इस कारण को अपनाया था जिससे उनके जमाने मे व्यापारी वर्ग अपने अपने साधनो विद्या रूपी कलाओ और धन रूपी माल खजाने का सही विवरण नही निकाल पायें,बाद मे वे उनके विरोधियों के द्वारा हरा दिये जाये और मालामाल नही बन पायें,पटाखों को फ़ोडना शोर करना आदि ध्यान भंग करने के लिये विरोधाभास का प्रतीक माना जाता है लेकिन आजकल के जमाने मे यह एक शौक बन गया है। गणेश सरस्वती और लक्ष्मी के पूजन के बाद में गायों के सींगो को रंगा जाता है फ़िर उनके शरीर को सजाया जाता है उन्हे घास और दाना आदि देकर उनकी पूजा की जाती है तथा प्रदक्षिणा और नमस्कार किया जाता है। ब्राह्मणो को भोजन और ब्रह्मचर्य आदि के द्वारा इन तीनो देवताओं की पूजा के जाती है। अगहन और पौष पक्ष मे किये जाने वाले पितरों के पूजन और श्राद्ध आदि का बहुत बडा महत्व बताया गया है। फ़ाल्गुन महिने की अमावस्या को श्रवण व्यतीपात और सूर्य का योग होने पर केवल श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन करवाने से गया से भी अधिक फ़ल प्राप्त होता है। इसके अलावा जिस महिने में सोमवार को सोमवती अमावस्या होती है उस अमावस्या को भूले हुये पितरों के लिये तथा जीवन में किसी कारण से होने वाले पाप के प्रायश्चित के लिये पीपल की प्रदक्षिणा और ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का जाप पितरो को शांति देने वाला था पापों को दूर करने वाला माना जाता है।
चैत्र और बैसाख की अमावस्या को पितृ पूजा को शुरु किया जा सकता है और उनकी पूजा श्रद्धा से अपने अपने इष्ट के रूप मे स्थापित किया जाता है। ज्येष्ठ मास की अमावस्या को ब्रह्म-सावित्री व्रत का किया जाना बताया गया है इसके अन्दर जो भी पूजा पाठ आदि किये जाते है वह सभी ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा के अनुसार ही किये जाते है। आषाढ श्रावण और भाद्रपद की अमावस्या मे पितृ श्राद्ध दान हवन आदि पितरो के लिये की जाती है। इन अमावस्या मे किये जाने वाले व्रत और दान पुंण्य के कार्य अक्षय माने जाते है। भाद्रपद की अमावस्या को तिल के खेत मे उत्पन्न कुशो को ऊँ हुं फ़ट मंत्र को जाप करते हुये उखाडा जाता है,जिन्हे पूरे वर्ष धार्मिक कार्यों के लिये प्रयोग मे लिये जाता है,अश्विन मास की अमावस्या को गया जी मे या गंगा जी मे पितृ श्राद्ध तर्पण आदि किया जाता है,यह पितरों को मोक्ष देने वाला और अचानक जीवन मे घटने वाली घटनाओं को रोकने वाला होता है। कार्तिक की अमावस्या को पितरों के प्रति तथा आने वाली पीढी को बुद्धिमान बनाने के लिये दीप दान किया जाता है यह दीप दान देव मन्दिर नदी बाग तालाब पीपल के पेड के नीचे गौशाला और बाजार आदि मे किया जाता है। दीपों में तिल के तेल का ही प्रयोग करना उत्तम रहता है,अलावा तेल के प्रयोत से वातावरण मे उत्पन्न कार्बन वायु मंडल में उस शक्ति को नही उत्पन्न कर पाते है जो बुद्धि के लिये उत्तम मानी जाती है। बिजली की रोशनी या आतिशबाजी से उत्पन्न प्रकाश से मन के अन्दर भटकाव पैदा होता है। देव साधना में या पितरो के प्रति की जाने वाली साधना से ध्यान का भटकाव पैदा होता है। साधन विद्या और धन में बराबर का हिसाब लगाने के लिये इस अमावस्या का प्रयोग किया जाता है। यानी जितने साधन होते है और उतनी ही साधनो को प्रयोग करने की विद्या और उतनी ही पूंजी जिससे साधनो को चलाया जा सकता है का मीजान इसी अमावस्या को लगाया जाता है। साधनो की सुरक्षा और उनकी लम्बी उम्र के लिये गणेश जी की प्रतिमा या तस्वीर की पूजा की जाती है,विद्या को पूरा रखने के लिये और वक्त पर विद्या क काम आने के लिये माता सरस्वती की पूजा तस्वीर या मूर्ति से की जाती है,धन का पूरा रहना और वक्त पर साधनो के लिये विद्या के द्वारा प्रयोग किये जाने के लिये धन का सहायक होने के लिये लक्ष्मी की मूर्ति और तस्वीर आदि का प्रयोग किया जाता है। इसी क्रम को त्रिकोण के रूप में सोलह कलाओं से युक्त विद्या साधन और धन के लिये उल्टे सीधे क्रम में बनाया जाता है और इन्ही सोलह त्रिकोणो के महत्व को श्रीयंत्र के रूप मे भी बनाया जाता है। इस अमावस्या को बडे त्यौहार के रूप मे मनाया जाता है,तथा इस त्यौहार पर वणिक वर्ग के ध्यान भंग के लिये अक्सर लोग बडी आवाज के रूप में पटाखों को फ़ोडा करते है जिससे जो लोग अपने इन तीनो साधनों का बुद्धि से प्रयोग नही कर पायें,हूण वंश के समुदाय ने इस कारण को अपनाया था जिससे उनके जमाने मे व्यापारी वर्ग अपने अपने साधनो विद्या रूपी कलाओ और धन रूपी माल खजाने का सही विवरण नही निकाल पायें,बाद मे वे उनके विरोधियों के द्वारा हरा दिये जाये और मालामाल नही बन पायें,पटाखों को फ़ोडना शोर करना आदि ध्यान भंग करने के लिये विरोधाभास का प्रतीक माना जाता है लेकिन आजकल के जमाने मे यह एक शौक बन गया है। गणेश सरस्वती और लक्ष्मी के पूजन के बाद में गायों के सींगो को रंगा जाता है फ़िर उनके शरीर को सजाया जाता है उन्हे घास और दाना आदि देकर उनकी पूजा की जाती है तथा प्रदक्षिणा और नमस्कार किया जाता है। ब्राह्मणो को भोजन और ब्रह्मचर्य आदि के द्वारा इन तीनो देवताओं की पूजा के जाती है। अगहन और पौष पक्ष मे किये जाने वाले पितरों के पूजन और श्राद्ध आदि का बहुत बडा महत्व बताया गया है। फ़ाल्गुन महिने की अमावस्या को श्रवण व्यतीपात और सूर्य का योग होने पर केवल श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन करवाने से गया से भी अधिक फ़ल प्राप्त होता है। इसके अलावा जिस महिने में सोमवार को सोमवती अमावस्या होती है उस अमावस्या को भूले हुये पितरों के लिये तथा जीवन में किसी कारण से होने वाले पाप के प्रायश्चित के लिये पीपल की प्रदक्षिणा और ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का जाप पितरो को शांति देने वाला था पापों को दूर करने वाला माना जाता है।
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