Sunday, July 17, 2011

ऋग्वेद की महिमा

ऋग्वेद की महिमा को जानने के पहले "ऋग्वेद" शब्द का विवेचन करना जरूरी समझता हूँ.इस शब्द में ऋ+ग+व+ए+द पांच अक्षरो का समिश्रण है,इन पांचो अक्षरो का विवेचन इस प्रकार से है:-
  • ऋ :- स्वर वर्ण का सप्तम अक्षर है,(कामधेनु-तन्त्र) मे कहा गया है-"ऋकारं परमेशानि कुन्डली मूर्तिमान स्वयं,अत्र ब्रहमा च विष्णुस्च रुद्रस्चैव वरासने,सदा शिवयुतं वर्णं सदा ईश्वर संयुतम,पंचवर्णमयं वर्णं चतुर्ज्ञानमयं तथा,रक्तविद्युल्लताकारं ऋकारं प्रण्मा्म्यहम",अर्थात-"ऋ" अक्षर स्वयं मूर्तिमान कुन्डली है,इसमे ब्रह्मा विष्णु और रुद्र सदा वास करते हैं,यह सदा शिव युत और ईश्वर से संयुत रहता है,यह पंचवर्ण मय और चतुर्ज्ञानमय है,रक्त विद्युत की लता के समान है,इसको मै प्रणाम करता हूँ.(वर्णोद्धार-तन्त्र) में इस अक्षर के बारे मे बताया गया है-"ऋ: पूर्वोषमुखी रुद्रो देवमाता त्रिविक्रम:,भावभूति: क्रिया क्रूरा रेचिका नाशिका धृत:,एकपाद शिरो माला मण्डला शान्तिनी जलम,कर्ण: कामलता मेधा निर्वृत्तिर्गणनायक:,रोहिणी शिवदूती च पूर्णगिरिश्च सप्तमे".
  • ग:- क वर्ग का तृतीय अक्षर,(कामधेनु-तन्त्र) में कहा गया है-" गकारं परमेशानि,पंचदेवात्मकं सदा,निर्गुणं त्रिगुणोपेतं,निरीहं निर्मलं सदा,पंचप्राणमयं वर्णं, सर्वशक्त्यात्मकं प्रिये,अरुणादित्यसंकाशां कुन्डलीं प्रणमाम्यहम",अर्थ-" हे ! परमेश्वरी देवी,"ग" वर्ण सदा पंचदेवात्मक है,तीन गुणो से संयुक्त होते हुए भी सदा निर्गुण,निरीह,और निर्मल है,यह वर्ण पंच प्राणो से युक्त और सभी शक्तियों से सम्पन्न है,लाल वर्ण सूर्य के समान शोभा वाले कुन्डलिनी शक्ति स्वरूप इस वर्ण को प्रणाम करता हूँ",(वर्णोद्धार-तन्त्र) में इसके ध्यान करने की विधि दी गयी है-"ध्यानमस्य प्रवक्ष्यामि श्रुणुस्व वर वर्णिनी,दादिमी पुष्प संकाशां चतुर्बाहुसमिन्विताम,रक्तामवरधरां नित्यां रत्नालंकार्भूषिताम,एवं ध्यात्वा ब्रह्म रूपां तन्त्रमन्त्र दसधा जपेत",तन्त्रो मे जो रूप पाये जाते है उनके अनुसार-"गो गौरी गौरवो गंगा गणेशो गोकुलेश्वर:,शांर्न्गी पंचात्मको गाथा गन्धर्व: सर्वग: स्म्रुति:,सर्व सिद्धि प्रभा धूम्रा द्विजाख्य: शिव दर्शन:,विश्वात्मा: गौ: पृथगरूप बालबन्धुस्त्रिलोचन,गीतं सरस्वती विद्या भोगिनी नन्दिनी धरा,भोगवती ह्रदयं ज्ञानं जालन्धरी लव:".
  • व :- अन्तस्थ वर्णों का चौथा अक्षर है,(कामधेनु-तन्त्र) में इसका जो स्वरूप वर्णन किया गया है वह इस पकार है-"वकारं चन्चलापान्गि कुन्डलीमोक्षमव्ययं,पंचप्राणमयं वर्णं त्रिशक्ति सहितं सदा,त्रिबिन्दु सहितं वर्णमात्मादि तत्व संयुतम,पंचदेव मयं वर्णं पीतविद्युतलतामयं,चतुर्वर्गप्रदं वर्णं सर्वसिद्धि प्रदायकम,त्रिशक्ति सहितं देवि त्रिबिन्दुसहितं सदा",(वर्णोद्धार-तन्त्र) मे इस अक्षर का ध्यान करने के लिये कहा गया है-"कुन्दुपुष्पप्रभां देवी,त्रिभुजां पंकजेक्षणाम,शुक्लमालाम्बरधरां रत्नहारोज्जवलां पराम,साधकाभीष्टदां सिद्धां सिद्धि दां सिद्धि सेविताम,एवं ध्यात्वां वकारतुं तन्त्रमन्त्र दसधा जपेत".
  • ए :-स्वर वर्ण का एकादस अक्षर है,(कामधेनु तन्त्र) मे कहा गया है,-"एकारं परमं दिव्यम,ब्रहमा विष्णु शिवात्मकम,रन्जिनी कुसुमप्रख्यं पंचदेवमयं सदा,पंचप्राणात्मकं वर्णं तथा बिन्दु त्रयात्मकं,चतुर्वर्गप्रदं देवि, स्वयं परमकुन्डली",और (तन्त्रशास्त्र) में कहा गया है-"एकारो वास्तव: शक्तिर्झिन्टी सोष्ठो भगं मरुत,सूक्षमा भूतोर्जकेशी च ज्योत्सना श्रद्धा प्रमर्दन:,भयं ज्ञानं कृशा धीरा,जन्घा सर्वसमुद्भव:,वहिर्विष्णुर्भगवती कुन्डली मोहिनी रुरु:,योषिदाधारशक्तिश्च त्रिकोणा ईशसंज्ञक:,सन्धिरेकादसी भद्रा पद्यमनाभ: कुलाचल:.
  • ऋग्वेद ने जिन कारकों को सम्पादित किया है,उनमे महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका) में वर्णन किया है,-उनके अनुसार इसमे ३४ प्रकार के कारकों का प्रतिपादन किया गया है जो इस प्रकार है:-१.वेदों का उदगम,२.वेदों का अपौरुषेयत्व और सनातनत्व,३.वेदों का विषय,४.वेदों का वेदत्व,५.ब्रह्मविद्या,६.वेदों का धर्म,७.सृष्टि विज्ञान,८.सृष्टि चक्र,९.गुरुत्व और आकर्षण शक्ति,१०.प्रकाशक और प्रकाशित,११.गणितशास्त्र,१२.मोक्षशास्त्र,१३.नौ निर्माण तथा वायुयान निर्माण कला,१४.बिजली और ताप,१५.आयुर्वेद विज्ञान,१६.पुनर्जन्म,१७.विवाह,१८.नियोग,१९.शासक तथा शासित के धर्म,२०.वर्ण और आश्रम,२१.विद्यार्थी और कर्तव्य,२२.गृहस्थ के कर्तव्य,२३.वानप्रस्थ के कर्तव्य,२४.सन्यासी के कर्तव्य,२५.पंचमहायज्ञ,२६.ग्रन्थों के प्रमाण्य,२७.योग्यता और अयोग्यता,२८.शिक्षण और अध्ययन पद्धति,२९.प्रश्नो और सन्देहों का समाधान,३०.प्रतिज्ञा,३१.वेद सम्बन्धी प्रश्नोत्तर,३२.वैदिक शब्दों के विशेष नियम,३३.वेद और व्याकरण के नियम,३४.अलंकार और रूपक.
  • ऋ से "ऋषि" और ऋ से "ऋचा" के बारे में प्राचीन साहित्य मे विस्तृत प्रमाण मिलते है.वेद और ज्ञान के प्रथम प्रवक्ता को ऋषि कहा जाता है,जिसे परीक्षदर्शी दिव्य द्रिष्टि का बोध हो,जो ज्ञान के द्वारा मन्त्रों को अथवा संसार की चरम सीमा को देखता है,वह ऋषि कहलाता है,ऋषि सात प्रकार के होते हैं-१.व्यास आदि महर्षि,२.भेल आदि परमऋषि,३कण्ड्व आदि देवऋषि,४.वशिष्ठ आदि ब्रहमृषि,५.सुश्रुत आदि श्रुतऋषि,६.ऋतुपर्ण आदि राजृषि,७.जैमिनी आदि काण्डऋषि.(रत्नकोष) में कहा गया है,"सप्त ब्रह्मऋषि-देवऋषि-परमऋषि-महऋषि:,काण्डऋषिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावरा".सामान्यत: वेदो की ऋचाओं का साक्षात्कार करने वाले लोग ऋषि कहे जाते है,(ऋषयो मन्त्रद्रष्टार:) ऋग्वेद में प्राय: पूर्वर्ती गायकों एवं समकालीन ऋषिओं का उल्लेख है,प्राचीन रचनाओं को उत्तराधिकारी में प्राप्त किया जाता था,एवं ऋशि परिवारों द्वारा उनको नया रूप दिया जाता था.ब्राह्मणों में ऋषि सबसे उच्च और आदरणीय होते थे,उनकी कुशलता की तुलना प्राय: त्वष्टा से की गयी है,जो स्वर्ग से उतरे माने थे,निसन्देह ऋषि वैदिक कालीन कुलों,राजसभाओं,तथा सभ्रान्त लोगों से सम्बन्धित होते थे.कुछ राजकुमार भी समय समय पर ऋचाओं की रचना करते थे,उन्हे राजऋषि कहा जाता था,आजकल उसका शुद्ध रूप राजऋषि है,साधारणत: मन्त्र या काव्य रचना ब्राह्मणों का कार्य था,मन्त्र रचना के क्षेत्र मे कुछ महिलाओं को भी यह अधिकार प्राप्त था.परवर्ती साहित्य में ऋषि ऋचाओं की साक्षात्कार करने वाले बताये गये हैं,जिनका संग्रह संहिताओं में हुआ,प्रत्येक वैदिक सूक्त में उल्लेख के साथ एक ऋषि का नाम आता है,ऋशिगण पवित्र पूर्व काल के प्रतिनिधि है,तथा साधु माने गये है,उनके कार्यों को देवताऒ के कार्यों को करने के तुल्य माना गया है.ऋग्वेद मे कई स्थानो पर उन्हे सात के दल में उल्लिखित किया गया है.(बृहदण्डकाण्ड्य उपनिषद) में उनके नाम गौतम,भारद्वाज,विश्वामित्र,जमद्ग्नि,वशिष्ठ,कश्यप और अत्रि बताये गये है,ऋग्वेद में कुत्स,अत्रि,रेभ,अगस्त्य,कुशिक,वशिष्ठ,व्यश्व,और अनेक नाम ऋषि रूप मे आते हैं,(अथर्ववेद) में भी और भी बडी तालिका है,जिसमे अन्गिरा,अगस्ति,जम्दाग्नि,अत्रि,कश्यप,वशिष्ठ,भरद्वाज,गविष्ठर,विश्वामित्र,कुत्स,कक्षीवन्त,कण्व,मेघातिथि,त्रिशोक,उशनाकाव्य,गौतम,और मुद्गल के नाम सम्मिलित है.ऋषिगण त्रिकालज्ञ माने गये है,उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये साहित्य को आर्षेय कहा गया है,यह विश्वास है,कि कलयुग मे ऋषि नही होते,अत: इस युग में न तो नयी श्रुति का साक्षात्कार हो सकता है,और न ही नयी स्मृतियों का निर्माण,उनका केवल अनुवाद,भाष्य और टीका ही सम्भव है.
  • वेद चार है,उनमे से सबसे प्रमुख और मौलिक ऋग्वेद है.क्योंकि सम्पूर्ण सामवेद और यजुर्वेद का पद्यात्मक अंश तथा अथर्वेद के कतिपय अंश ऋग्वेद से ही लिये गये हैं,पातन्जलि महाभाष्य (पस्पशाहनिक) के अनुसार ऋग्वेद की इक्केस संहितायें थीं,किन्तु आजकल एक ही शाकल संहिता उपलब्ध है,जिसमें १०२८ सूक्त (११ वालखिल्ल्यों को लेकर) हैं.शाकल संहिता का दो प्रकार से विभाजन किया गया है,प्रथमत: यह मण्डल,अनुवाक और वर्ग मे विभाजित किया गया है,जिसके अनुसार इसमे दस मण्डल,८५ अनुवाक,और २००८ वर्ग हैं,दूसरे विभाजन के अनुसार इसमे ८ अष्टक है,६४ अध्याय,और १०२८ सूक्त हैं,प्रत्येक सूक्त के ऋषि,देवता,और छन्द विभिन्न है,ऋषि वह है,जिसको मन्त्र का प्रथम साक्षात्कार हुआ (आधुनिक भाषा में ऋषि वह था,जिसने उस सूक्त की रचना की अथवा परम्परा से उसे ग्रहण किया थी) सूक्त का वर्णनीय विषय देवता होता है,छन्द विशेष का प्रकार पद्य होता है.जिससे पद्य की रचना हुई है.
  • व्याख्यान और अध्यापन के क्रम से ऋग्वेद की पांच शाखायें बतायी गयी है,-१.शाकल,२.वाष्कल,३.आश्वालयन,४.शान्खायन,और ५.माण्डूकेय.कुच विद्वानो के अनुसार इसकी २७ शाखायें हैं-१.मुद्गल,२.गालब,३.शालीय,४.वात्स्य,५.रौशिरि,६.बोध्य,७.अग्निमाठर,८.पराशर,९.जातूकर्ण्ड्य,१०.शान्खायन,११.आश्वआलयन,१२.कौषीतकि,१३.महाकौषीताकि,१४.शाम्व्य,१५.माण्डूक्य,१६.बहवृच,१७.पैन्ग्य,१८.उद्दालक,१९.शतबालक्ष,२०.गज,२१.वाष्कलि प्रथम,२२.वाष्कलि द्वितीय,२३.वाष्कलि तृतीय,२४.एतरेय ,२५.वशिष्ठ,२६.सुलभ,२७.शौनक.(पंडित भगवदत्त: वैदिक वान्गमय का इतिहास भाग-१ पृष्ठ-१३१).
  • ऋग्वेद के ऋषियों के नाम इस प्रकार हैं मधुछन्दा,जेत,.मेघातिथि,.शुन:शेप.हिरण्यस्तूप,कण्ड्व,प्रस्कण्ड्व,सव्य,नोधा,.पराशर,गौतम,कुत्स,कश्यप,ऋज्राश्व,त्रित,कक्षीवान,भावायव्य,रोमेश,परुच्छेय, बुध,अवस्यु,प्रगाथक्ण्व,ययाति,अपाला,दीर्घतमा,अगस्त्य,इन्द्र,मरुत,लोपामुद्रा,गृत्समद,सोमहूति,कूर्म,विश्वामित्र,ऋषभ,उत्कल,कट,देवश्रवा,देवव्रत,प्रजापति,वामदेव,अदिति,त्रसदस्यु,पुरुमिल्ल,बभ्रु,गतु,द्युम्निक,संवरण,नहुष,कुमार,ईश,सुतम्भरा,धरुण,वब्रि,पुरु,द्वित,त्रैतन,शश,विश्वसाम,द्युम्न,विश्वचर्षाणि,गोपपाणि,वसुयु,त्र्यारुण,अश्वमेध,अत्रि,विश्ववर,गौरवीति,गविष्ठर,प्रभु,पुनर्वत्स,नृमेध,पृथु,वसु,चक्षु,सप्तर्षि,कवि,पूतदक्ष,प्रतिक्षत्र,ऊर्ध्वसद्य्म,अमहीयु,रेहजमदग्नि,पुरुहन,शिशु,वैखानस,त्रिसिरा,पुष्टिगु,हर्यश्व,शन्ख,हरिमन्थ,वेन,मातरिश्वा,कुरुस्तत,मथित,गुत्समद,परतर्दन,असित,कुशीदी,अभितया,अम्बरीस,इध्मवाह,विश्वक,सप्तगु,यज्ञ,भूतांश,गौपवन,कपोत,ऋष्यश्रंग,जुहू,जरत्कअरु,विभ्राजा,रहूगण,क्षुतकक्ष,सुकक्ष,अत्रिभूय,गौरी,उतथ्य,तिरिश्च,प्रतिरथ,कशास्व,निध्रुवि,नेम,सुदीति,अत्रि,पवित्र,श्रुष्टिगु,गोपवन,दमन,देवश्रवा,अकृष्टपच्या,कृष,कृत्नु,च्यवन,वसुक्र,व्याघ्रपात,देवल,उशनाकाव्य,घोषा,ऋजिश्वा,श्यावाश्व,बैकुन्ठ,विवुहा,सुदास,सरमा,नाभानेदिष्ट,अनिला,विषाणक,राम,स्यूमरश्मि,शिखन्डिनी,बृहन्मति,अयअस्य,बिन्दु,आवत्सार,रीति,आवत्सारक्ष,द्युतान,प्रतिभानु,ऋण्चय,भृगु,पुरुमीढ,यम,यमी,रेणु,आयु,सप्तबघ्रि,विरूप,संसुक,अजा,पृषध्र,सुपर्ण,एकत,लुभ,कर्ण्श्रुत,दृढ्च्युत,कृष्ण,सुहस्त्य,नेमसूनु,अप्रतिरथ,बृहत्कथ,प्रचेता,मान्धाता,पणि,सुमित्र,शबरा,विप्रजूति,उष्ट्रदंश,व्यन्ग,नभप्रभेदन,मूर्धन्वान,ध्रुव,अगिन्तापस,धर्म,अर्बुद,पतन्ग,पृथुबन्धु,भिक्षु,सर्वहरि,सप्तधृति,श्रद्धा,इन्द्रमाता,शिरिम्बिठ,केतु,बाभ्रव्य,स्वास्ति,यक्ष्मनाशन,विहव्य,रातहव्य,यजत,उरुचक्रि,बहुवृक्त,पौर,अवस्यु,देवापि,भरद्वाज,नारद,शुनहोत्र,इरिम्बिठ,गर्ग,वैवस्तमनु,वशिष्ठ,सहस्त्रवसु,शक्ति,इत,विश्वावसु,शतप्रभेदन,शर्याति,अभीवर्त,द्रोण,उपस्तुत,पुरूरवा,अरिष्टनेमि,सुवेद,उरूक्षय,भिशक,श्येन,सार्पराज्ञि,अघमर्षण,सवन,क्लमल,दुवस्यु,नाभाग,रक्षोहा,मेघातिथि,असन्ग,शाश्वति,देवातिथि,ब्रहमातिथि,वत्स,यवापमरुत,शशकर्ण,सुहोत्र,अश्वसूक्ति,शंयु,विश्वमना,पायु,निपतिथि,वशिष्ठ द्वितीय,वशिष्ठ ततीय,विश्वकर्मा,संवर्त,अग्निपावक,साधि,तान्व,ऊर्ध्वग्रीव,साम्बमित्र,अग्निपूत,उर्वशी,शिवि,मण्डूक,लव,बृहद्दिव,हिण्यगर्भ,चित्रमहा,प्रतिप्रभ,भुवन,बहिर्षि,मुद्गल,श्रुतविद,त्रिसंकु,भर्ग,कलि,मत्स्य,मान्य,मन्यु,साध्वस,वीतहव्य,गोषूक्ति,नर,सौभारि,ऋजिस्वा,कश्यप,मैत्रावरुणि,रोचिसा,श्यावस्व.
  • ऋगवेद में जिन देवताओं की स्तुति की गयी है वे इस प्रकार है-अग्नि,वायु,धेनु,प्रुथ्वी,वरुण,वास्तोष्पति,सरस्वान,सविता,अश्विनौ,पितर,सरमापुत्र,सोमक,रुद्र,आप्त्य,आप्रौ,बैकुन्ठ,दधिक्रा,सिन्धु,त्वष्टा,ज्ञान,रोमशा,दक्षिणा,अरण्यानी,अत्रि,काले,वरुणानी,पर्जन्य,अग्नायी,इन्द्र,वनस्पति,विष्णु,पूषा,इन्द्रावरुण,चित्र,कपिन्जल,उषा,अर्यमा,विश्वदेव,मृत्यु,वामदेव,सूर्य,ऋतु,आत्मा,क्षेत्रपति,स्वनय,ब्राहम्णस्पति,धृत,बृहस्पति,ऋभु,श्रद्धा,देवी,साध्य,ताक्षर्य,रति,द्यौ,प्रस्तोक,पृष्णि,राका,सिनीवाली,आयु,मित्रावरुण,सोमपितृमान,यूप,पर्वत,आदित्य,सरस्वती,धाता,उच्चैश्रवा,वैश्वानर,मरुत,निऋति,सीता,सोम,औषधि,उशना,वाक,इन्द्राणी (वनस्पति),शची,मायाभेद.
  • ऋग्वेद मे लिखे गये छंदों के नाम इस प्रकार हैं-अभिसारिणी,अनुष्टप,अष्टि,अस्तारपंक्ति,अतिधृति,अतिजगती,अतिनिचृत,अत्यष्टि,मध्येज्योतिषमती,महाबृहती,स्कन्धोग्रीवी,तनुशिरा,त्रिष्टुप,उपरिष्टादबृहती,उपरिष्टाज्ज्योति,ऊर्ध्वबृहती,उरोबृहती,बृहती,विष्टारपंक्ति,उष्णिग्गर्या,उष्णिक,वर्धमाना,विपरीता,विराटरूपा,विराट,विराटपूर्वा,विराटस्थाना,विष्टारबृहती,पादजिचृत,चतुर्विंशतिक,द्विपदी,धृति,द्विपादविराट,एकपादत्रिष्टुप,एकपादविरात,गायत्री,जगती,कुकुप,क्रुति,पदपंक्ति,पंक्युत्तरा,पिपीलिकमध्या,प्रगाथ,प्रस्तारपंक्ति,प्रतिष्ठा,पुर्स्ताद,बृहअती,यवमध्या.
  • ऋग्वेद में देवता तत्व के अन्तर्गत अनेक महत्व पूर्ण विषयों का वर्णन हुआ है,सम्पूर्ण विश्व का किसी न किसी दैवत के रूप मे ग्रहण है.मुख्य देवताऒ को स्थानक्रम से तीन वर्गों में १.भूमिस्थानीय,२.अन्तरिक्ष स्थानीय,३. व्योमस्थानीय मे बांटा गया है,इसी प्रकार परिवार क्रम से देवताऒ के तीन वर्ग हैं-१.आदित्य वर्ग (सूर्य परिवार),२.वसु वर्ग और ३.रुद्र वर्ग.इसके अतिरिक्त कुछ भावात्मक देवता भी है,जैसे श्रद्धा,मन्यु,वाक आदि.बहुत से ऋषि परिवारों का भी देवीकरण हुआ है,जैसे ऋभु आदि,नदी पर्वत,यज्ञपात्र,यज्ञ के अन्य उपकरणों का भी देवीकरण किया गया है,ऋग्वेद के देवमण्डल को देख कर,अधिकांश पाश्चात्य विद्वानो का मत है,कि इसमे बहुवेदवाद का ही प्रतिपादन किया गया है,परन्तु यह मत गलत है,वास्तव में देवमण्डल के सभी देवता एक दूसरे से स्वतन्त्र नही है,अपितु वे एक ही मूलसत्ता के द्रश्य जगत में व्यक्त विविध रूप हैं,सत्ता एक ही है,स्वयं ऋग्वेद मे कहा गया है-"एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति,अग्निं यमं मातारिश्वानमाहु:",अर्थात मूल सत्ता एक ही है,उसी को विप्र (विद्वान) अनेक प्रकार से (अनेक रूपों में) कहते हैं,उसी को अग्नि,यम,मातरिश्वा,आदि कहा गया है,वरुण,इन्द्र,सोम,सविता,प्रजापति,त्वष्टा आदि भी उसी के नाम हैं.एक ही सत्त से सम्पूर्ण विश्व का उद्भव कैसे हुआ है,इसका वर्णन ऋग्वेद के पुरुषसूक्त (१०.९०) में विराट पुरुष के रूपक से बहुत सुन्दर रूप में हुआ है,इसके कुच मन्त्र इस प्रकार हैं-"सहस्त्र्शीर्षा पुरुष: सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात,स भूमिं सर्वत: स्पृत्वाअत्यतिष्ठ्द्द्शान्गुलम",अर्थात-"पुरुष यानी सम्पूर्ण जगत मे व्याप्त होने वाली सत्ता असंख्य अथवा अनन्त सिर वाला,अनन्त हाथ वाला,अनन्त आंख वाला,और अनन्त पांव वाला है.वह भूमि यानी जगत को सभी ओर से घेर कर भी इसका अतिक्रमण दस अन्गुल से किये हुए है,अर्थात पुरुष इस जगत मे समाप्त न होकर इसके भीतर और परे दोनो ओर है.
  • एतावानस्य, महिमातो ज्यायांश्च पूरुष:,पादोअस्य विश्वा भूतानि त्रिपादास्यामृतं दिवि, अर्थात- जितना भी विश्व का विस्तार है,वह सब इसी विराट पुरुष की महिमा है,यह पुरुष अत्यन्त महिमा वाला है,इसके एक पाद (चतुर्थांश=कियदंश) में ही सम्पूर्ण जगत व्याप्त है,इसके अम्रुतमय तीनपाद (अधिकांश)प्रकाशमय लोक को आलोकित कर रहा है.
  • तस्माद यजात्सर्वहुत ऋच: सामानि जज्ञिरे,छन्दासि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत,अर्थात-उसी सर्वहूत यज्ञ (विश्व के लिये पूर्ण रूपेण अर्पित सत्ता) से ऋक और साम उत्पन्न हुए,और उसी से यजु: भी.
  • ऋग्वेद मे ऋत की महती कल्पना है,जो सम्पूर्ण विश्व में व्यवस्था बनाये रखने में समर्थ है,यही कल्पना नीति का आधार है,वरुणसूक्त (ऋग्वेद ५.८५.७) में सुन्दर नैतिक उपदेश पाये जाते है,ऋत के साथ सत्य,धर्म और व्रत की महत्वपूर्ण कल्पनायें तथा मान्यतायें हैं.
स्वाभाविक व्यवस्था भौतिक और आध्यात्मिक निश्चित दैवी नियम है,यह विधि जिसे ऋत कहते है,अति प्राचीन काल में व्यवस्थित हुई थी,ऋत का पालन सभी देवता,प्रक्रुति,आदि नियम पूर्वक करते हैं,ईरानी भाषा में यह नियम १६०० ईशा पूर्व "अर्त" के नाम से और अवेस्ता में "अश" के नाम से पुकारा जाता था,ऋत की सभी शक्तियों को धारण करने वाला देवता वरुण है,(ऋग्वेद ५.८५.७).प्रकृति के सभी उपादान उसके विषय है,एवं वह देखता है,कि मनुश्य उसके नियमों का पालन करते हैं या नही,वह नैतिकों को पुरस्कार और अनैतिकों को दण्द देता है,वरुण के अतिरिक्त अन्य देवताओं का भी ऋत से सम्बन्ध है,उसी के माध्यम से देवगण अपना कार्य नियमित रूप से करते हैं.ऋत के तीन क्षेत्र हैं-(१) विश्व व्यवस्था,जिसके द्वारा ब्रह्माण्ड के सभी पिण्ड अपने क्षेत्र में नियमित रूप से कार्य करते हैं,(२) नैतिक नियम जिसके अनुसार व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्ध का निर्वाह होता है,(३) कर्मकाण्डीय व्यवस्था जिसके अन्तर्गत धार्मिक क्रियाओं के विधि-निषेध,कार्यपद्धति आदि आते है (ऋग्वेद १.२४,७.८.१०,७.८६.१,७.८७.१-२) सृष्टि प्रक्रिया मे बताया गया है,कि तप से ऋत और सत्य उत्पन्न हुए,फ़िर इनसे क्रमश: रात्र,समुद्र,अर्नव,संवत्सर,सूर्य,चन्द्र,आदि उत्पन्न हुए.ऋत और वृत्ति मे अन्तर करते हुए बताया गया है कि- "ऋताम्रुताभ्याम जीवेतु मृतेन प्रम्रुतेन वा,सत्यानृताभ्यापि वा न श्ववृत्या कदाचन,ऋतमुन्छ्शिलं ज्ञेयंमृतं स्यादयाचितम,म्रुतन्तु याचितं भैक्षं प्रम्रुतं कर्षणं स्मृतम",अर्थात-ऋत,अमृत,मृत,सत्य-अनृत इनके द्वारा जीवन निर्वाह करले,किन्तु कुत्ते की वृत्ति (नौकरी आदि) से कभी जीवन निर्वाह न करे.शिलौच्छ को ऋत और भिक्षा न मांगने को अमृत,भीख मांगने को मृत और खेती करने के लिये हल चलाने के लिये प्रमृत कहते है.

1 comment:

Aniruddha Pande said...

बहुत अच्छी जानकारी .